Monday , November 4 2024
Home / MainSlide / राजगढ़-देवास की डगर पर क्यों ठिठक रही है भाजपा ? – अरुण पटेल

राजगढ़-देवास की डगर पर क्यों ठिठक रही है भाजपा ? – अरुण पटेल

अरूण पटेल

राजगढ़ और देवास लोकसभा सीट को अपने पाले में बनाये रखना भाजपा के लिए आसान नहीं है क्योंकि 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद दोनों ही क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रभाव काफी बढ़ा है। राजगढ़ में तो भाजपा की राह बिलकुल आसान नहीं बची है जिसका कारण यह है कि एक तो यह पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के असर वाला इलाका है और दूसरा यहां से उम्मीदवार उनका ही पसंदीदा होगा। भाजपा सांसद रोडमल नागर का विरोध तो भाजपाई खेमे में ही हो रहा। 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद इस क्षेत्र में कांग्रेस का दबदबा काफी बढ़ गया है और केवल दो विधानसभा क्षेत्रों में ही भाजपा चुनाव जीती है जबकि पांच विधायक कांग्रेस के और एक निर्दलीय विधायक है। निर्दलीय विक्रम सिंह राणा कांग्रेस पृष्ठभूमि के हैं और कमलनाथ सरकार को समर्थन दे रहे हैं। ऐसे में भाजपा के लिए यह सीट बचाना काफी मुश्किलों से भरा होगा जबकि देवास सीट पर भी कांग्रेस की पकड़ 2013 के विधानसभा की तुलना काफी बढ़ी हुई है।

राजगढ़ संसदीय सीट भोपाल संभाग में आती है लेकिन इसके विधानसभा क्षेत्रों की सीमायें मालवा व ग्वालियर अंचल को भी जोड़ती हैं। दिग्विजय सिंह राजगढ़ संसदीय सीट से दो बार लोकसभा सदस्य रह चुके हैं उसके बाद उनके भाई लक्ष्मण सिंह पहले कांग्रेस सांसद और बाद में भाजपा सांसद के रुप में इस क्षेत्र से चुनाव जीत चुके हैं। यहां 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी के रुप में लक्ष्मण सिंह को कांग्रेस के नारायण सिंह आमले ने पराजित किया था। 2014 की मोदी लहर में भाजपा के रोडमल नागर ने कांग्रेस के नारायण सिंह आमले को 2 लाख 28 हजार 737 मतों के अन्तर से पराजित किया था। नागर को 59.4 प्रतिशत यानी 5 लाख 96 हजार 727 मत मिले थे जबकि आमले को 36.41 प्रतिशत यानी 3 लाख 67 हजार 990 मत मिले और सभी आठों विधानसभा क्षेत्रों में नागर को भारी बढ़त मिली थी लेकिन ताजा विधानसभा चुनाव में कांग्रेस विधायकों की संख्या पांच हो गयी है। इस प्रकार यह सीट अब भाजपा के लिए जीतना एक प्रकार से टेढ़ी खीर बन गया है, देखने वाली बात केवल यह रहेगी कि भाजपा इस सीट को बचा पाती है या नहीं।

अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित देवास लोकसभा सीट 2014 की मोदी लहर में मनोहरलाल ऊंटवाल ने जीती जो कि अब विधायक बन गये हैं। उनसे पराजित हुए सज्जन सिंह वर्मा भी विधानसभा चुनाव जीतकर कमलनाथ सरकार में काबीना मंत्री हैं। उनके साथ ही हुकुमसिंह कराड़ा भी कमलनाथ सरकार में काबीना मंत्री बन चुके हैं और कांग्रेस के युवा चेहरा कुणाल चौधरी भी विधायक बन गये हैं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे का मुकाबला होगा। इस सीट को बचाये रखने के लिए भाजपा को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ेगा। 2014 की मोदी लहर में हुए चुनाव में ऊंटवाल ने कांग्रेस उम्मीदवार सज्जन सिंह वर्मा को 2 लाख 60 हजार 313 मतों के भारी अन्तर से पराजित किया था। ऊंटवाल को 58.19 यानी 6 लाख 65 हजार 646 मत जबकि वर्मा को 35.43 प्रतिशत यानी 4 लाख 5 हजार 333 मत मिले थे। अब 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद इस सीट पर कांग्रेस की पकड़ मजबूत हुई और यहां चार-चार विधायक कांग्रेस और भाजपा के हैं।

पिछला लोकसभा चुनाव भाजपा ने 2 लाख 60 हजार के भारी अन्तर से जीता था तो ताजा विधानसभा चुनाव में न केवल कांग्रेस ने इस अन्तर को पाट दिया बल्कि वह भाजपा से 39 हजार 871 मतों से आगे हो गयी। इस संसदीय सीट पर भी भाजपा को अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए काफी मशक्कत करना होगी। लोकसभा के 2014 के चुनाव के समय किसी भी विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस को बढ़त नहीं मिल पाई थी जबकि अब यहां का परिदृश्य काफी बदल गया है। सज्जन सिंह वर्मा 2009 का लोकसभा चुनाव जीते थे लेकिन 2014 में वे हार गये थे। यह भी एक संयोग है कि 2014 में एक-दूसरे का मुकाबला करने वाले उम्मीदवार अब विधायक बन चुके हैं। इसलिए इस बार चुनावी मुकाबला नये चेहरों के बीच ही होगा।

 

सम्प्रति-लेखक श्री अरूण पटेल अमृत संदेश रायपुर के कार्यकारी सम्पादक एवं भोपाल के दैनिक सुबह सबेरे के प्रबन्ध सम्पादक है।