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उन्माद की इस चिंगारी में अंजाम-ए-जम्हूरियत क्या होगा ?- उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

लोकसभा के चुनाव में जीत हासिल करने की जुनूनी-सियासत में चुनावी-प्रक्रिया की पारदर्शी और तटस्थ बनाने वाली आचार-संहिता की इबारत में लहु छलकने लगा है। संवैधानिक-संस्कारों के तट-बंध भी टूट रहे हैं। भारतीय-गणतंत्र के लिए यह शुभ संकेत नहीं है कि उसके प्रधानमंत्री की रैलियों और भाषणों में उत्तेजना और उन्माद की चिंगारियां चटके और लोकतंत्र भभकने लगे। ताजा घटनाक्रम में उस्मानाबाद के जिला निर्वाचन अधिकारी ने मंगलवार को लातूर में आयोजित चुनावी-रैली में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण को प्रथमद्दष्टया आचार-संहिता का उल्लंघन माना है।

देखना दिलचस्प होगा कि चुनाव आयोग मोदी के इस भाषण पर क्या रूख अख्तियार करता है? इसकी रोकथाम के लिए क्या कदम उठाता है? यदि चुनाव आयोग जिला निर्वाचन अधिकारी की रिपोर्ट से सहमत होता है तो यह पहली बार होगा कि प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी से आचार-संहिता के उल्लंघन के मामले में स्पष्टीकरण मांगा जाएगा। मोदी ने पहली बार मतदान करने वाले मतदाताओं से कहा था कि ’मैं पहली बार मतदान करने वालों से कहना चाहता हूं,  क्या आपका पहला वोट वीर जवानों को समर्पित हो सकता है, जिन्होंने पाकिस्तान पर हवाई हमले किए? क्या आपका पहला वोट पुलवामा के आतंकवादी-हमले में शहीदों को समर्पित हो सकता है?’ उल्लेखनीय है कि आयोग ने 19 मार्च को पार्टियों को हिदायत दी थी कि वो प्रचार के दौरान रक्षा-बलों की गतिविधियों को शामिल करने से परहेज करें।

खुद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा अनुभवी और पैरोकार मानने वाले प्रधानमंत्री मोदी को क्या पता नही था कि जो वो बोल रहे हैं, वह सरेआम आचार-संहिता का उल्लंघन है? प्रधानमंत्री मोदी ने उद्देश्यपूर्वक सुनिश्‍चित रणनीति के तहत पहली मर्तबा वोट करने वाले 18 साल के युवाओं की भावनाओं को कुरेदने की कोशिश की थी कि वो सैनिकों के नाम पर भाजपा की झोली मे अपना वोट डाल दें।

नब्बे के दशक में टीएन शेषन के चुनाव-आयुक्त बनने के बाद देश की चुनाव-आयोग का दबदबा काफी बढ़ा था। कोई भी चुनाव आयोग की अवहेलना करने का साहस नहीं जुटा पाता था। शेषन ने विश्‍वास पैदा किया था कि आयोग चाहे तो मजबूती के साथ पार्टियों को आचार-संहिता का पालन करने के लिए विवश कर सकता है। शेषन का कार्यकाल उनके उत्तराधिकारियों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत रहा है। 2014 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त ने उप्र में भाजपा नेता अमित शाह और समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान के सांप्रदायिक  भाषणों के बाद उनकी रैलियों और रोड-शो को प्रतिबंधित कर दिया था। हलफनामे पर माफी के बाद अमित शाह को रैलियां करने की अनुमति दी गई थी, लेकिन आजम खान को पूरे चुनाव में उप्र में कोई सभा करने की इजाजत नहीं मिली सकी थी। क्या अब ऐसा हो पाएगा?

बहरहाल, वह यूपीए का शासन-काल था। फिलहाल राजनीतिक परिद्दश्य केशरिया है। प्रधानमंत्री मोदी अपनी शख्सियत को  राजनीतिक गुनाहों और गफलतों से ऊपर मानते हैं। उनके विचारों और कार्यशैली का ताना-बाना निरंकुशता के तारों से बुना गया है। सर्वज्ञ होने का उनका एहसास निरंकुशता को बढ़ाता है। अर्से बाद  आयोग की स्वायत्ता स्वतंत्रता और विश्‍वसनीयता आरोपों के घेरे में है। पिछले विधानसभा चुनाव में अन्य राज्यों के साथ गुजरात के चुनाव घोषित नहीं करके उसने अपने माथे पर काला टीका लगाया था। लोकसभा चुनाव में भी उसकी निष्पक्षता संदिग्ध है। इंडियन एयर लाइंस के बोर्डिग पास पर प्रधानमंत्री की तस्वीर या शताब्दी में चौकीदार नारे की शिकायत जैसे मसलों को आयोग यूं ही अनदेखा नहीं कर रहा है। आयोग मोदी से जुड़ी शिकायतों पर छुईमुई हो जाता है। ताजा उदाहरण नमो टीवी का है। दिलचस्प है कि नमो टीवी पर प्रतिबंध के आदेश को उसने बाद में लंबित कर दिया।

यूपीए के समय आयोग की स्वायत्ता का राजनीतिक-सम्मान बरकरार रहा, लेकिन वर्तमान में आयोग की कई कदम पक्षधरता की जद में हैं। दो दिन पहले ही देश के 66 वरिष्ठ नौकरशाहों ने भाजपा की पक्षधरता के लिए आयोग को कठघरे में खड़ा किया था। लगता नहीं है कि लातूर में मोदी के भाषण को लेकर आयोग कुछ करेगा।

अशुभ की आशंकाएं इसलिए घनीभूत हो रही हैं कि यह सब कुछ भूलवश नहीं, बल्कि योजनाबद्ध तरीके से हो रहा है। निरंकुशता और शेरशाही का यह आलम उस वक्त है, जबकि चुनावी-युद्ध में मोदी के माथे पर निर्णायक विजय का सेहरा नहीं बंधा है। जीत हासिल करने के बाद उनकी सरकार लोकतंत्र के नाम पर क्या गुल खिलाएगी, या अंजाम-ए-जम्हूरियत क्या होगा…? इसकी कल्पना ही की जा सकती है।

 

सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 12 अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।