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अयोध्याः लम्बे विवाद पर पूर्ण विराम-राज खन्ना

राज खन्ना

सुप्रीम अदालत ने कोई गुंजाइश नही छोड़ी है। बेशक वक्त लंबा लगा। पर उसका फैसला क्रियान्वयन के लिए किसी अवसर की गुंजाइश नही छोड़ता। सरकार को तीन महीने के भीतर मंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट का गठन करना और निर्माण की प्रक्रिया तय करनी है। यह मुमकिन नही है कि अदालती निर्णय सब पक्षों को संतुष्ट करे। मुस्लिम पक्ष का असंतोष स्वाभाविक है। पर फैसले के जरिये सुप्रीम कोर्ट ने सदियों पुराने इस विवाद पर पूर्ण विराम लगाया है।

सुप्रीम कोर्ट, इलाहाबाद हाई कोर्ट के जिस फैसले के खिलाफ अपील सुन रहा था उसमे तीन पक्षों में भूमि का बराबर बंटवारा किया गया था। यह फैसला अमल में आना मुमकिन नही था। और अगर ऐसा हो पाता तो विवाद में कुछ और दुःखद जोड़ देता। सुप्रीम कोर्ट ने विवादित स्थल से मुस्लिम पक्ष को दूर किया है। निर्मोही अखाड़े के दावे को खारिज करके हिंदुओं के आपस में उलझने की संभावना भी खत्म की है। अदालत यहीं नही रुकी। उसने केंद्र सरकार पर ट्रस्ट के जरिये मंदिर निर्माण की जिम्मेदारी डाली है।

मंदिर निर्माण में सरकार की भूमिका बहुतों को चौंकायेगी। पर यह पहली बार नही होगा। आजादी के फौरन बाद सरदार पटेल की पहल पर सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण ऐसे ही ट्रस्ट के जरिये हुआ था। नेहरू मंत्रिमंडल में इसका प्रस्ताव आया था। पंडित नेहरु इसके पक्ष में नही थे। सरदार पटेल नही माने थे। मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद की हिस्सेदारी पर भी पंडित नेहरू ने गहरा ऐतराज किया था। फिर भी डॉक्टर प्रसाद वहां गए थे। राम मंदिर के सवाल पर स्थितियां भिन्न हैं। यह फैसला एक ऐसी सरकार के वक्त में आया है, जिसकी अगुवाई करने वाले दल के एजेंडे में मंदिर मुद्दा शामिल है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उसकी सारी बाधाएं दूर कर दी हैं।

अदालती फैसलों के भीतर झांकने की गुंजाइश नही होती। पर अपने देश मे अन्य संस्थानों की विफ़लता ने अदालतों पर अतिरिक्त जिम्मेदारियां बढ़ाई हैं। ऐसे सवाल जो विधायिका-कार्यपालिका के जरिये या फिर समाज के भीतर हल हो जाने चाहिएं, वे भी अदालतों के भरोसे छोड़े जा रहे हैं। अयोध्या विवाद उनमे शामिल था। इस विवाद की देश-समाज ने बड़ी कीमत चुकाई है। बहुत खून बहा है। जन-धन की अपार हानि। इसने दूरियां-कडुवाहट बढ़ाई। सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न किया। लम्बे समय तक निचली अदालतों और फिर हाईकोर्ट ने भी काफी वक्त लिया। सुप्रीम कोर्ट को भी भावनाओं-आस्था से जुड़े इस विवाद की संवेदनशीलता का अहसास था। इसलिए उसने मध्यस्थता के जरिये हल की खोज की पहल की। इसके लिए खासा वक्त दिया। फिर भी कामयाबी नही मिली तो लम्बी सुनवाई और सबूतों को खंगालने के बाद फैसला किया।

इस विवाद ने बहुत से सबक सिखाये हैं। सरकार-प्रशासन को भी। समाज को भी। वह सीख है, जिसने तंत्र को सक्रिय किया। उसी सीख ने लोगों को शांत-सयंमित रखा। यह जारी रहने की उम्मीद करनी चाहिए। एक और जो सबक, जिसे हम बार-बार भूलते हैं। हम हर मसलें का हल अदालत में ढूंढ़तें हैं। फिर ज्यूडिशियल एक्टिविज़्म की शिकायत करते हैं। अदालतें हल खोजती हैं। पर वक्त खूब लगता है। इस दरमियान चुकता कीमत बेहिसाब होती है। ताजा फैसले को पढ़ते-सुनते चाहें तो इस पर भी सोचें।

 

सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।