यदि देश में राजनीतिक समझदारी (?) और राष्ट्रवादी सोच (?) का यह सिलसिला यूं ही चलता रहा तो देश में राष्ट्रहित से खिलवाड़ करने वाले नागरिकों की संख्या में दिन दूना रात चौगुना इजाफा होने से कोई भी नहीं रोक पाएगा। मोदी-सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रद्रोह के संवैधानिक और कानून प्रावधानों से आगे अब राष्ट्रद्रोहियों को राजनीतिक रूप से भी परिभाषित करने का सिलसिला शुरू हो गया है। इस श्रेणी में वो लोग शरीक हैं, जो सरकार के कामकाज या नीतियों पर सवाल खड़े करते हैं अथवा असहमति व्यक्त करते हैं। राष्ट्रहित पर हमला करने वाले लोगों की सूची में अब देश के प्रसिद्ध उद्योगपति राहुल बजाज का नाम भी शरीक हो गया है। राहुल बजाज का यह रजिस्ट्रेशन देश की वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन ने किया है।
बकौल वित्तमंत्री निर्मला सीतारमन जाने-माने उद्योगपति राहुल बजाज ने अपनी जिन दलीलों के साथ देश में भय और आशंकाओं के जिस राजनीतिक माहौल की जिक्र किया है, उनकी उन दलीलों से राष्ट्रहित को चोट पहुंचती है। वित्तमंत्री ने यह खुलासा नहीं किया है कि देश के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हालात पर तीखे सवाल करने वाले एक बयान से कौन से राष्ट्रहित कैसे प्रभावित होगें? मॉब-लिंचिग या साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के नाथूराम गोडसे को लेकर दिए गए बयान उल्लेख राष्ट्रहितों पर कैसे कुठाराघात हो सकता है? राहुल बजाज के कथन पर वित्तमंत्री का विचलित होना असाधारण है, क्योंकि इस कंटेंट में राष्ट्रहित के खिलाफ एक भी शब्द नहीं है।
मोदी सरकार की आलोचना एवं उससे अहमति को राष्ट्रद्रोह मानने की प्रवृत्ति दिन-ब-दिन गहराती जा रही है। सवाल यह है कि किसी प्रधानमंत्री या उसकी पार्टी की आलोचना राष्ट्रद्रोह अथवा गैर राष्ट्रीय कैसे और क्यों हो सकती है? अपने विरोधियों में राष्ट्रद्रोह के आरोपों का राजनीतिक डर पैदा करने का उपक्रम देश की लोकतांत्रिक सेहत के लिए खतरनाक है। इसके पहले प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के वक्त कांग्रेसजन मानने लगे थे कि इंदिराजी की नीतिगत आलोचनाओं से राष्ट्रहित आहत होते हैं। कांग्रेस की यही राजनीतिक मनोवृत्ति अंतत: आपातकाल की तानाशाही में रूपान्तरित होकर सामने आई थी। मोदी राज में भी इंदिरा गांधी का कार्यकाल का राजनीतिक डर का वही माहौल उभर कर सामने आ रहा है। क्या इस ’राजनीतिक डर’ के आगे भी आपातकाल की अनहोनी गाथाएं आकार ले रही हैं?
सीतारमन के हिदायती ट्वीट में उनकी नाराजी स्पष्ट दिख रही है। बजाज ने सधे तरीके से यह बात इकॉनॉमिक्स-टाइम्स अवार्ड समारोह में जानी-मानी राजनीतिक और औद्योगिक हस्तियों के बीच कही थी। वित्तमंत्री के ट्वीट में कथित ’राष्ट्र हित’ के मसले पर भले ही कुछ साफ नहीं पा रहा हो, लेकिन भाजपा की ट्रोल सेना की हमलावर खौफजदा करने वाली शिकायतें, हिदायतें और नसीहतें सिर्फ यही सवाल कर रही है कि बजाज अपने भाषण में भय या डर की बातें क्यों कर रहे थे? सीतारमन के ट्वीट में यह सख्त एडवायजरी भी है कि ’अपनी धारणा फैलाने की जगह जवाब पाने के और भी बेहतर तरीके हैं। ऐसी बातों से राष्ट्र हित को चोट पहुंचती है’। वित्तमंत्री एडवायजरी के निहितार्थ जहां उद्योगपतियों को अर्थव्यवस्था के मसले पर खामोशी ओढ़ने की हिदायत दे रहे हैं, वहीं ट्रोल आर्मी बजाज को आगाह भी कर रही है।
वित्तमंत्री को शायद बजाज का यह कथन नगवार गुजरा है कि ’हमारे उद्योगपति दोस्तों में से कोई नहीं बोलेगा, मैं खुले तौर पर इस बात को कहता हूं… कि एक माहौल तैयार करना होगा… जब यूपीए-2 सरकार सत्ता में थी, तो हम किसी की भी आलोचना कर सकते थे… आप अच्छा काम कर रहें हैं, उसके बाद भी हम आपकी खुले तौर पर आलोचना करें, इतना विश्वास नहीं हैं कि आप इसे पसंद नहीं करेगें’। वित्तमंत्री के साथ गृहमंत्री अमित शाह, रेलमंत्री पीयूष गोयल सहित मुकेश अंबानी, कुमार मंगलम बिड़ला, सुनील भारती जैसी हस्तियों की मौजूदगी में बजाज की यह सपाट बयानी किसी भी सरकार का मुंह कसैला करने के लिए पर्याप्त है।
भाजपाई ट्रोल सेना ने बजाज को भले ही कांग्रेस के लायसेंस राज में फूलने-फलने वाला उद्योगपति निरूपति कर दिया हो, लेकिन सच्चाई यह है कि वो कांग्रेस सरकारों के भी मुखर आलोचक रहे हैं। एक बार तो उन्होंने यहां तक कह दिया था कि मौजूदा कांग्रेस उनके दादा के जमाने की कांग्रेस नहीं हैं। हार्वर्ड बिजनेस स्कूल में पढ़े राहुल, गांधीजी के निकट माने जाने वाले उद्योगपति व्यवसायी, स्वतंत्रता सेनानी जमनालाल बजाज के पोते हैं। निर्मला सीतारमन को यह भ्रम है कि वो सिर्फ मोदी सरकार की कारगुजारियों पर ही उंगली उठा रहे हैं।
राहुल बजाज गैर-राजनीतिक प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में जाने जाते हैं। यहां उनके बेटे एवं बजाज ऑटो के प्रबंध निदेशक राजीव बजाज ने पिता के बयान को असाधारण रूप से ’साहिसक’ बताया है। ’सच चाहे जितना कड़ुआ क्यों न हो, उनके पिता बोलने में हिचकते नहीं हैं’। वो यानि राजीव आश्वस्त नहीं हैं कि राहुल बजाज को ऐसे मंच पर यह संवेदनशील मसला उठाना चाहिए था या नहीं, लेकिन राहुल बजाज के लिए ऐसे मंचों या दरबारों में लाल कालीन कोई मायने नहीं रखता है। राहुल बजाज के लिए यह दरबार ऐसा ही है, जैसे किसी बैल के लिए लाल कालीन…।
सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 03 दिसम्बर 19 के अंक में प्रकाशित हुआ है।