
डॉक्टर राम मनोहर लोहिया अपना जन्मदिन नही मनाते थे। उनके जन्मदिन 23 मार्च की तारीख़ अमर शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की शहादत की तारीख है। अपने जन्मदिन पर इन शहीदों की याद उनके लिए अधिक महत्वपूर्ण थी। सिर्फ 57 साल की उन्हें उम्र मिली। गुजरे 53 साल बीत गए। पर दूसरों के लिए जीने वाले हमेशा जिंदा रहते हैं। लोहिया भी जिंदा हैं। अपने विचारों के जरिये।
वह गांधीवादी थे। पर खुद को कुजात गांधीवादी बताते थे। उन्होंने गांधीवादियों की तीन श्रेणी बांटी। पहली जो सत्ता साथ थे। पंडित नेहरु और राजेंद्र प्रसाद जैसे। दूसरे जो गांधी के नाम संस्थाएं चलाते थे। विनोवा जी जैसों को उसमे शामिल मानते थे। तीसरी श्रेणी में खुद को रखते थे। वह गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के प्रबल अनुयायी थे। पर उन्होंने गांधीवाद को अधूरा दर्शन बताया। वह समाजवादी थे लेकिन मार्क्स दर्शन को एकांगी माना। गांधी को वह पूर्व तो मार्क्स को पश्चिम का प्रतीक मानते थे। वह पूर्व-पश्चिम की खाई पाटना चाहते थे। राष्ट्रवादी थे लेकिन विश्व सरकार की कल्पना करते थे।
लोहिया की मूल पहचान एक राजनेता की है। पर देश-समाज के लिए उनका योगदान उनके राजनीतिक कर्म से बहुत बड़ा है। उन्होंने पंडित नेहरू को उस दौर में चुनौती दी, जब वह लोकप्रियता के शिखर पर थे। 1962 के फूलपुर चुनाव में उनके मुकाबले के लिए पहुंचे लोहिया ने कहा था,” मुझे मालूम है कि मैं पहाड़ के सामने हूँ। पार न कर पाऊं। पर दरार तो डाल ही दूंगा।” पर लोहिया की नेहरू और कांग्रेस की आलोचना में निजी बैर जैसा कुछ नही था। वह मानते थे कि नेहरू और कांग्रेस उस रास्ते से भटके हुए हैं, जिस रास्ते के लिए आजादी की लड़ाई लड़ी गई। गैर कांग्रेसवाद की मुहिम पर निकले लोहिया ने 1967 आते तक 9 राज्यों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था। ये लोहिया थे जिनकी कोशिशों से कम्युनिस्ट और जनसंघ इन सरकारों में साथ शामिल थे। 1977 में जनसंघ को आगे बढ़ाने का जो आरोप जेपी पर लगा, उसके एक दशक पहले यह लोहिया पर चस्पा किया जा चुका था।
एक विचारक-चिंतक के रुप में लोहिया का कद बहुत बड़ा था। प्रतिभा-कर्मठता-तेजस्विता का अनूठा मेल। सप्त क्रांतियों का उनका आह्वान था। नर-नारी की समानता,चमड़ी के रंग से उपजी मानसिक-आर्थिक गुलामी खत्म करने , जाति प्रथा तोड़ने और पिछड़ों को अवसर देने,परदेसी गुलामी की खिलाफत, निजी पूंजी की असमानता को दूर करने और पैदावार बढ़ाने, निजी जीवन में हस्तक्षेप रोकने और अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ सत्याग्रह इनमें शामिल था। वे इन मोर्चों पर एक साथ संघर्ष के हिमायती थे। उनका संघर्ष बौद्धिक लफ्फाजी नही था। आजाद भारत में भी वह सड़क से सदन तक जूझते रहे। बार-बार जेल यात्राएं करते रहे। उन्होंने विद्रोही युवा पीढ़ी की एक बड़ी जमात खड़ी की। अड़ने-लड़ने और किसी से न डरने वाली। सच के हक में खड़ी होने वाली और हक के लिए कोई कीमत कम मानने वाली। वह चरण-चिन्हों का अनुकरण करने वाले नही थे। धारा के साथ बहने वाले भी नही। लीक से हटकर चलने वाले। अलग राह बनाने वाले । विपरीत धारा में तैरकर पार पहुंचने वाले। गांधी के अनुयायी। पर भक्त नही। किसी को अपना भक्त बनाने की चाहत न रखने वाले भी। सवाल करने वाले। और सवालों का जबाब देने के लिए तैयार रहने वाले भी। वह तो मानते थे कि किसी नायक के निधन के पचास साल तक उसकी प्रतिमा न लगाई जाए, ताकि इस बीच लोग उसके काम का मूल्यांकन कर सके।
सिर्फ राजनीति नही। अर्थनीति। विदेश नीति। समाज-देश को बेचैन करने वाले हर सवाल पर लोहिया की साफ़ सोच थी। जाति प्रथा, महिलाओं की बदहाली, भाषा, हिन्द-पाक एका ,साम्प्रदायिकता, भारतीय संस्कृति और भारत के भविष्य जैसे तमाम विषयों पर लोहिया के विचार जाने के पांच दशक से अधिक समय बाद भी उनकी विलक्षण दूर दृष्टि के सबूत हैं। वह विद्रोही थे। परम्परा भंजक। गजब के साहसी। वही सावित्री की तुलना में द्रोपदी जैसी भारतीय नारी की बात कर सकते थे। द्रोपदी क्यों ? वह सवाल करती है। संघर्ष करती है। किसी से हार नही मानती। सावित्री को क्यों कमजोर माना ? नारी को गठरी के समान नही बनाना है। नारी इतनी शक्तिशाली होनी चाहिए कि वक्त पर पुरुष को गठरी बना कर अपने साथ ले चले।
और उन्हीं लोहिया को भारतीय संस्कृति में अगाध आस्था थी। वह कहते हैं, ” भारतमाता हमे शिव का मष्तिष्क दो। कृष्ण का ह्रदय दो और राम का कर्म और वचन दो। हमे असीम मष्तिष्क और उन्मुक्त ह्रदय के साथ-साथ जीवन की मर्यादा से रचो। उनका भरोसा था कि सत्यम, शिवम, सुंदरम के प्राचीन आदर्श और आधुनिक विश्व के समाजवाद,स्वातंत्र्य और अहिंसा के तीन सूत्री आदर्श को इस रुप में रखना होगा ताकि वे एक दूसरे की जगह ले सकें।
लोहिया की धर्म निरपेक्षता एकांगी नही थी। वह साम्प्रदायिक हिंसा के लिए हिन्दू-मुसलमानों दोनो को जिम्मेदार मानते थे। उनके मुताबिक” समाज की परवरिश गलत की गई। हिन्दु ओर मुसलमानों की जड़ों में अविश्वास का जहर घोला गया। यह काम किसी और ने नही बल्कि दोनो समुदायों के पढ़े लिखे लोगों ने किया। मजहब और सियासत का रिश्ता अभी ठीक तरह से नही समझा गया। हमारी बिरादरी ने भी नही समझा। शायद उन लोगों ने भी नही समझा जो खुदा और ईश्वर दोनो को बहुत अहमियत देते हैं। असल में दोनो का रिश्ता है। खाली हमारी तरफ से जब कह दिया जाता है कि समाज और राज ( सरकार) से मजहब का कोई ताल्लुक नही रहना चाहिए तो यह बात पूरी नही हो जाती। पूरी बात करने के लिए यह समझना होगा कि धर्म तो है लम्बे पैमाने की राजनीति और राजनीति है छोटे पैमाने का धर्म। इनको और ज्यादा सोचें तो इस तरह से चलेगा कि मजहब का काम है कि वह अच्छाई करे और राजनीति का काम है बुराई से लड़े। दोनो एक ही सिक्के के दो पहलु हैँ।”
औऱ लोहिया की भारत और पश्चिम को लेकर सोच क्या थी ? ” पांच हफ्तों की विदेश यात्रा के बाद ,1953 के आखिर में, एक हवाई कम्पनी की बस में गोरी चमड़ी वाले मर्दों और औरतों के दल में मैं अकेला अश्वेत श्रोता था। यह दल भारत के कीड़े-मकोड़ों और उनके काटने से जीवन भर सताने वाली बीमारियों की बड़े विस्तार से चर्चा कर रहा था। मैं काफी देर तक जुबान पर काबू किये रहा, क्योंकि मैंने धीरज रखना सीख लिया है, यद्यपि पूरी तरह नही। एक मुखर और चपल महिला को मैंने काले नाग की बात बताई जिसके काटने का कोई इलाज ही नही। बस में लोगों ने समझा कि मैं बहुत कडुवा हो रहा हूँ। लेकिन मैं शरीर की किसी कडुवाहट के प्रति सजग नही था। मेरे अंदर इतिहास की कडुवी दुहराहट की वेदना अवश्य थी। मैंने उन लोगों से कहा कि सचमुच भारत दुनिया का सबसे गरीब और गन्दा मुल्क है, लेकिन हो सकता है कि सौ साल या इससे कम समय में , योरोप और अमेरिका, भारत से इस संदर्भ में स्थान परिवर्तन कर लें। यह तो इतिहास चक्र है। यह बिना किसी भावना के चलता है। मेरे लोग और मेरा देश दो बार पहले ही इतिहास के शिखर पर खड़े हो चुके हैं और मैं नही चाहूंगा कि इसकी तीसरी आवृत्ति हो। क्योंकि यदि शिखर पर तीसरी बार चढ़ने का अवसर आएगा तो निश्चय ही हम फिर औंधे मुंह गिरकर धूल फांकेंगे। यूनानियों और रोमनों को छोड़कर जो किसी भी तरह की वर्तमान गोरी सभ्यता के अंग नही हैं, अमेरिका और योरोप वाले उतार- चढ़ाव के इस व्यापार में बिल्कुल नए है। उनकी अपनी कोई अतीत कुल स्मृतियां नही हैं, जो उन्हें इतिहास चक्र की याद दिलायें। यही सबसे दुख की बात है। यदि इस चक्र पर सदा स्वयं टूटने के बजाय, मानव जाति की संभावित योजना से इसे तोड़ा जाए तो अब भी दुनिया में बुद्धिमानों की हंसी गूंज सकती है, जो मैंने महात्मा गांधी से सुनी और अल्बर्ट आइंस्टीन में जिसकी प्रतिध्वनि से मुझे प्रफुल्लता मिली थी।”
लोहिया ने जीते जी कुछ नही चाहा। मरते वक्त निजी इस्तेमाल का सामान और कुछ किताबें छोड़ गए थे। पर इससे अलग एक बड़ी पूंजी और अथाह विचार सम्पदा सौंप गए। ऐसी सम्पदा जो अमली जामा पहन पाती तो देश-समाज और समूची मानवता का उपकार हो पाता। वह कहते थे ,”लोग मेरी बात सुनेंगे। शायद मरने के बाद। लेकिन किसी दिन सुनेंगे जरूर। वह आजादी के पहले लड़ते रहे। आजादी बाद भी लड़ते रहे। किसके लिए ? सबके लिए। देश के लिए। तो फिर जबाब भी हमे ही देना है। उनकी विरासत के वारिसों से भी सवाल होते रहेंगे । लोहिया ने सवाल पूछने से न डरने की सीख दी थी। जबाब देने का साहस रखने की नसीहत भी।
सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।
 CG News | Chhattisgarh News Hindi News Updates from Chattisgarh for India
CG News | Chhattisgarh News Hindi News Updates from Chattisgarh for India
				 
			 
						
					 
						
					