बीच में बारह सौ मील की भौगोलिक दूरी। पर दूरियां तो और भी थीं। बोली। भाषा। पहनावा। खानपान। रहन-सहन। रीति-रिवाज। सब जुदा थे। जोड़ने का सिर्फ़ एक धागा था। एक मजहब। उधर नफ़रत की भट्ठी की आंच मन्द हुई। इधर यह धागा भी बेमानी साबित हुआ। ढाई दशक में भारतीय महाद्वीप का नक्शा दूसरी बार बदला। जिन्ना की जिद से बना पाकिस्तान टूट गया। पूर्वी पाकिस्तान बांग्ला देश के नाम से नया देश बना। 1947 के विभाजन की त्रासदी 1971 में दोहराई गई। तीस लाख से ज्यादा लोग मारे गए। तकरीबन दो करोड़ लोग बेघर हुए। अकथनीय अत्याचार और अंतहीन विपदाएं अलावा थीं।
सच में पाकिस्तान के ये दोनों हिस्से मन से कभी जुड़ नही पाये। सत्ता के सूत्र पश्चिम पाकिस्तान के हाथ में रहे। पूर्वी पाकिस्तान ने खुद को बेगाना पाया। उपेक्षित। तिरस्कृत। शुरुआती टकराव उर्दू को पाकिस्तान की पहली भाषा बनाये जाने पर हुआ। जिन्ना के नेवल एडीसी रहे कर्नल मजहर अहमद ने लिखा,” उर्दू को पाकिस्तान की पहली भाषा बनाने का फैसला पूर्वी पाकिस्तान को कभी रास नही आया। हालांकि उर्दू इस्लाम और अरबी के ज्यादा नजदीक थी। लेकिन संस्कृत और हिन्दुत्व के नजदीक होने के बाद भी पूर्वी बंगाल के लोग बंगाली को ही अपनी भाषा मानते थे।” छठवें दशक के अंत तक पश्चिमी पाकिस्तान के प्रति व्यक्ति की आय पूर्वी पाकिस्तान की तुलना में 62 फीसद ज्यादा हो चुकी थी। इस दशक की शुरुआत में दूरियां बहुत दूर तक पसर चुकी थीं। जनरल अयूब खान के इंटरव्यू को याद करें,” मेरा बस चलता तो 1962 में नया संविधान लागू होते ही मैंने पूर्वी बंगाल से कह दिया होता कि अगर वे चाहें तो अलग हो सकते हैं।
आखिरी कील 19 दिसम्बर 1970 को ठुंकी। पाकिस्तान नेशनल एसेम्बली का इस दिन चुनाव हुआ। कुल 313 सीटों में पूर्वी पाकिस्तान की सीटें 169 थीं। शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने 167 सीटें जीत लीं। पश्चिमी पाकिस्तान की 144 में से 88 सीटें जुल्फिकार अली भुट्टो की अगुवाई वाली पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के खाते में गईं। राष्ट्रपति जनरल याह्या खान और भुट्टों ने शेख को सत्ता से दूर रखने के लिए हाथ मिला लिया। शेख को प्रधानमंत्री की कुर्सी की जगह जेल में डाल दिया गया। 1946 में कलकत्ता के नरसंहार के खलनायक एच एस सुहरावर्दी के शेख कभी सहयोगी हुआ करते थे। पर इस वक्त तक वह एक धर्मनिर्पेक्ष नेता बन चुके थे। पूर्वी पाकिस्तान में पिता तुल्य। सर्वमान्य। गिरफ्तारी से नाराजगी। जीत के बाद भी उन्हें सत्ता से दूर रखने का व्यापक विरोध शुरु हुआ। दमन चक्र इससे भी अधिक क्रूर और प्रबल था। लेकिन ये जनांदोलन था, जो किसी भी दमन पर भारी था। 26 मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान ने खुद को पृथक बांग्लादेश घोषित कर दिया।
पाकिस्तान का अंदरूनी संकट भारत के लिए नई समस्याएं लेकर आया। पाकिस्तानी सेना और सुरक्षा बलों के तीव्र दमन ने पूर्वी पाकिस्तान से भारत के लिए पलायन तेज किया। शरणार्थियों की संख्या बढ़ती ही गई। नवंबर1971 तक यह तादाद एक करोड़ को पार कर गई।
शरणार्थियों में पाकिस्तानी सेना की बागी बंगाल रेजीमेंट भी थी, जो अगले दिनों में मुक्ति वाहिनी बनी। वहां की खतरनाक हालत खुद भारत के लिए चिंता का सबब थी। सर्वोदयी नेता जयप्रकाश नारायण ने पाकिस्तान के फौजी शासकों पर दबाव बनाने के लिए अनेक देशों का दौरा किया। अमेरिकी सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर 7 जुलाई 1971 को भारत आये। अमेरिकी रवैय्या निराशाजनक था। 9 अगस्त 1971 को भारत-सोवियत शांति, मैत्री और सहयोग संधि पर हस्ताक्षर हुए। इसके बाद इंदिराजी 21 दिनों के यूरोप और अमेरिका के दौरे पर गईं। भारत के पक्ष में सहानुभूति के लिए उन्होंने अनेक सभाओं गोष्ठियों को संबोधित किया। बीबीसी के इंटरव्यू में उनसे पूछा गया,” बांग्लादेश के मामले में भारत को और धैर्य क्यों नही रखना चाहिए?” उनका तल्ख़ जबाब था,” हिटलर ने जब हमले किये तो आपने क्यों नही कहा कि आओ हम बर्दाश्त करें।चुप रहें। जर्मनी से शांति बनाए रखें। यहूदियों को मरने दें।” निर्णायक लहजे में उन्होंने कहा,” मुझे नही लगता कि पड़ोसी देश के हालात के बारे में हम अपनी आंखें बंद रख सकते हैं… हमे पाकिस्तान के सैनिक शासन से खतरा है। अप्रत्यक्ष हमले की स्थिति बनी हुई है। पाकिस्तान जैसा था, वैसा आगे नही रह पाएगा।” जबाब में याह्या खान ने कहा,”वह औरत मुझे डरा नही सकती।” इंदिरा ने पलटवार में कहा,” टिप्पणी उस व्यक्ति की मानसिकता दर्शाती है।” इंदिरा जी और अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन की मुलाकात बेहद निराशाजनक थी। असलियत में दोनों ने ही एक-दूसरे को सख्त नापसंद किया। निक्सन की इंदिराजी को लेकर टिप्पणियां बेहूदी और शर्मनाक थीं। इंदिराजी राजकीय भोज के वक्त राष्ट्रपति के साथ बैठीं। पर पूरे वक्त उन्हें नजरदांज करके एक शब्द बोले बिना उन्होंने अपना जबाब दे दिया। खाली हाथ लौटी इंदिराजी जान चुकी थीं कि भारत को ये लड़ाई अकेले ही लड़नी है।
भारतीय सेनाओं ने मुक्ति वाहिनी को हथियार और प्रशिक्षण देना शुरु किया। पाकिस्तान ने 3 दिसम्बर 1971 को पठानकोट हवाई अड्डे पर बमबारी करके युद्ध शुरु कर दिया। कश्मीर और कच्छ में भी मोर्चे खोल दिये। भारत ने 6 दिसम्बर 1971 को बांग्लादेश को स्वतंत्र देश के रुप मे मान्यता दी। भारतीय सेना और मुक्ति वाहिनी की संयुक्त कमान गठित हुई। तेजी से हरकत में आयी भारतीय सेना ने चिटगांव बंदरगाह और ढाका हवाई अड्डे पर भारी बमबारी करके पाकिस्तानी वायु सेना को पंगु कर दिया। नौसेना ने कराची बंदरगाह की घेराबंदी करके पूर्वी पाकिस्तान में फंसी सेना की मदद के सभी रास्ते बंद कर दिए। पाकिस्तानी सेना की बौखलाहट का आलम यह था कि उसने अपना ही एक जहाज डुबो दिया।
पाकिस्तान ने अमेरिका से मदद की गुहार लगाई। निक्सन ने भारत को चेतावनी भेजी। फिर सातवें बेड़े को बंगाल की खाड़ी की ओर रवाना कर दिया। इस बेड़े का नेतृत्व परमाणु शक्ति सम्पन्न “एंटरप्राइज” नामक एक एयर क्राफ्ट कैरियर कर रहा था। अमेरिकी धमकी को ठेंगे पर रखते हुए भारतीय सेनाएं तेजी से ढाका की ओर बढ़ रही थीं। इंदिराजी ने खिल्ली उड़ाते हुए कहा,” मैंने सुना है कि कुछ देश हमे धमकाने की कोशिश कर रहे हैं। पाकिस्तान के साथ किन्ही समझौतों-संधियों की बात कर रहे हैं।” 12 दिसम्बर को दिल्ली के रामलीला मैदान में वह दहाड़ी,” हम पीछे नही हटेंगे। एक कदम भी पीछे नही हटेंगे। हम अपनी आजादी की रक्षा करेंगे।”
युद्ध चौदह दिन चला।चारो तरफ़ से घिरी बेबस पाकिस्तानी सेना ने 15 दिसम्बर 1971 को आत्मसमर्पण की घोषणा कर दी। वैसे उसे “आत्मसमर्पण”शब्द से ऐतराज था। वह इस काम को सयुंक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधियों के सामने करना चाहते थे। लेकिन इस समर्पण में बड़ी भूमिका निभाने वाले मेजर जनरल जे आर जैकब अड़े रहे। उन्होंने पाकिस्तानी सेना को ढाका की जनता की मौजूदगी में समर्पण के लिए मजबूर किया। 16 दिसम्बर को पाकिस्तान की पूर्वी कमान के लेफ्टिनेंट जनरल ए. ए. के.नियाज़ी की अगुवाई में तिरानवे हजार से अधिक अफसरों, जवानों ने लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने अपने हथियार सौंपे। जनरल अरोड़ा ने आत्मसमर्पण की याचना को मंजूरी दी। दूसरे विश्वयुद्ध के अलावा युद्धक इतिहास का यह सबसे बड़ा समर्पण था। जनरल सैम मानेकशॉ के नेतृत्व में लड़ी गई इस लड़ाई ने भारतीय सेना की कीर्ति को दूर तक फैलाया। दूसरे विश्व युद्ध में सैम के शरीर में जापानी सेना की सात गोलियां उतर गई थीं। किसी को भरोसा नही था कि वह बचेंगे। डॉक्टरों के पूछने पर उन्होंने कहा था, “जरा गधे ने लात मार दी।” उनकी वापसी हुई। बाद के हर युद्ध के मोर्चे ओर थे। ”” और 1971 में उन्होंने इतिहास रच दिया । वह भारतीय सेना के पहले फील्ड मार्शल बने। मार्च 1971 में युद्ध शुरु करने के प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। कहा कि हम समय पर हमला करेंगे और जीतेंगे। लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे सैम से इंदिरा जी ने पूछा था कि क्या उनकी तख्ता पलट की योजना थी? सैम का हंसते हुए जबाब था,” आपकी नाक लम्बी है। मेरी नाक लम्बी है। पर मैं दूसरों के मामले में नाक नही घुसाता। आप अपना काम कीजिये। हम अपना।”
1971 की जीत भारतीय सैन्य कौशल के साथ बांग्ला देश की जनता के अपूर्व सहयोग की देन थी। पर इसमें सबसे बड़ा योगदान इंदिराजी की दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का था। यह उनके जीवन का सर्वोत्कृष्ट अध्याय था। उन्होंने अमेरिका की चेतावनी को हवा में उड़ाया। सातवें बेड़े की भभकी की परवाह नही की। 1966 में प्रधानमंत्री बनते समय उन्हें गूंगी गुड़िया कहा गया था। 1969 में उन्होंने पार्टी के विरोधियों को किनारे लगा कर अपनी राजनीतिक ताकत दिखाई थी। 1971 में उन्होंने दुनिया की बड़ी ताकतों को भारतीय सेना की बहादुरी, अपने कूटनीतिक कौशल, दृढ़ता और बेजोड़ नारी शक्ति से परिचित कराया। 1962 की शर्मनाक हार से उबरने की जो कोशिश 1965 में लाल बहादुर शास्त्री ने की थी, उसकी मंजिल 1971 थी। उस मंजिल पर शान से तिरंगा इंदिरा ने फहराया। देश उनके पीछे एकजुट और सीना तान फिर पैरों पर खड़ा था। उनकी लोकप्रियता आसमान पर थी। विरोधियों को उनमें देवी दुर्गा की छवि नजर आयी थी। हालांकि अटल जी ने बाद में इनकार किया कि उन्होने ऐसी उपमा दी थी। पर जहां तक आम भारतीय की बात थी ,उसके लिए 1971 की जीत की खुशी में इंदिराजी के लिए कोई भी विशेषण छोटा था।
इस युद्ध में पाकिस्तान हर मोर्चे पर पिटा। पूर्वी पाकिस्तान अलग होने के साथ उसने पश्चिमी सीमा पर पंजाब में 397.93 , पीओके में 479.96 तथा कच्छ में 476.17 वर्गमील भूमि भारत के हाथों गंवाई। शर्मनाक आत्मसमर्पण ने उसकी सेना के साथ देश के मुख पर स्थायी कालिख पोत दी।
इस युद्ध का सबसे बड़ा संदेश क्या था ? मजहब के आधार पर 1947 का भारत विभाजन गलत था। सीख ? एक मजहब देश की एकता की गारंटी नही हो सकता। क्या पाकिस्तान ने उसे माना ? नही…! हमेशा खुद को श्रेष्ठ मानने वाले पश्चिमी पाकिस्तानी मुसलमानों की हिकारत भरी टिप्पणी थी, ” वे ( पूर्वी पाकिस्तानी) असली मुसलमान नही हैं। वे कन्वर्टेड हैं।”
सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।