गांधी जी ने हल्की शिकायत की मुद्रा में कहा,” नेहरु और सरदार पटेल ने उसकी सूचना उन्हें नही दी।” गांधी जी अपनी पूरी बात कह पाते इसके पहले आवेश में पंडित नेहरु ने प्रतिवाद किया,” वे उनको बराबर पूरी जानकारी देते रहे हैं।” गांधी जी के फिर दोहराने पर कि उन्हें विभाजन की योजना की जानकारी नही थी, पंडित नेहरु ने अपनी पहले कही बात को थोड़ा बदल दिया। कहा,” नोआखाली इतनी दूर है, कि वे उस योजना के बारे में विस्तार से न बता सके होंगे। विभाजन के बारे में मोटे तौर पर उनको( गांधी जी ) को लिखा था।” इस बैठक में ” श्री नेहरु और सरदार पटेल, गांधी जी के प्रति आक्रामक रोष दिखाते रहे।”
जिस बैठक में यह घटित हुआ वह सामान्य बैठक नही थी। कांग्रेस कार्यकारिणी की इस बैठक ने देश के विभाजन को मंजूरी दी थी। इस मंजूरी ने आने वाले दिनों में देश के भूगोल को बदल डाला। कभी न भरने वाले जख्मों- कड़वी-कसैली यादों का इतिहास रच डाला। वर्तमान उसे ढो रहा है। भविष्य बोझिल है। समाजवादी नेता डॉक्टर राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण इस बैठक में विशेष आमंत्रित सदस्य के रुप में मौजूद थे। डॉक्टर लोहिया ने आगे लिखा,” उन दोनों के साथ मेरी कई तीखी झड़पें भी हुईं। उस समय जो बात आश्चर्यजनक लगी और आज भी लगती है,यद्यपि उसे आज मैं कुछ अच्छी तरह समझ सकता हूँ, वह थी अपने अधिष्ठाता के प्रति उसके दो प्रमुख चेलों के अशिष्ट व्यवहार की। कुछ मनोविकार था। ऐसा लगता था, वे किसी चीज पर ललचा गए और जब उन्हें लगा कि गाँधी जी इसमें रुकावट बन रहे थे,तो चिढ़ गए।”
यादगार बैठक के दृश्य डॉक्टर लोहिया के शब्दों में,”इस बैठक के दौरान पूरे दो दिनों तक, लोगों से ठसाठस भरे कमरे के एक कोने में एक कुर्सी पर बैठे मौलाना आजाद लगातार अबाध गति से सिगरेट का धुंआ उड़ाते रहे। एक शब्द भी नही बोले। संभव है उन्हें सदमा पहुंचा हो। लेकिन उनका यह जताने का प्रयत्न करना कि विभाजन का विरोध करने वाले अकेले थे,हास्यास्पद बात है ( लोहिया ने यह प्रतिवाद आजाद की आत्मकथा “इंडिया विन्स फ्रीडम” में किये दावे के उत्तर में लिखा )। पूरी बैठक के दौरान अटूट खामोशी उन पर छाई रही।
बैठक की अध्यक्षता कर रहे कांग्रेस अध्यक्ष जे बी कृपलानी की भूमिका लोहिया ने याद की,” वे ऊंघते हुए झुक कर इस बैठक में बैठे थे। किसी एक मुद्दे पर बहस के दौरान महात्मा गांधी ने कांग्रेस के थके हुए अध्यक्ष की चर्चा की और मैंने गहरी झुंझलाहट से उनकी बाहँ को झिंझोड़ा। उन्होंने तब बताया कि वह भयानक सिर दर्द से पीड़ित हैं। विभाजन के प्रति उनका विरोध निश्चित निष्कपट रहा होगा, क्योंकि उनके लिए यह वैयक्तिक भी था, लेकिन आजादी के इस जुझारु संगठन को बुढ़ापे की बीमारी और थकान ने दुर्दिन के समय इस बुरी तरह धर दबोचा।”
“खान अब्दुल गफ्फार खान महज दो वाक्यों में बोले। उन्होंने इस बात पर दुःख प्रकट किया कि उनके सहयोगियों ने विभाजन की योजना को स्वीकार कर लिया है। उन्होंने छोटी सी विनती के रुप में कहा कि प्रस्तावित जनमत गणना में भारत और पाकिस्तान में शामिल होने के इन दो विकल्पों के सिवा, क्या यह भी जोड़ा जा सकता है कि उत्तर सीमा प्रान्त चाहे तो स्वतंत्र भी रहे। इसके अलावा वे एक शब्द भी नही बोले। निश्चय ही वे बहुत मर्माहत होंगे।”
“जयप्रकाश नारायण कुछ संक्षेप में, पर एक बार में ही विभाजन के खिलाफ निश्चयात्मक ढंग से बोले और बैठक में बाकी समय बिल्कुल खामोश रहे।” और लोहिया ने खुद के विषय में लिखा,” विभाजन के प्रति मेरा अपना विरोध हठी और मुखर था,लेकिन शायद यह प्रभावपूर्ण न था। मुझे याद पड़ता है कि उसमें खामियां भी थीं। हर दशा में मेरा विरोध पहाड़ों को हिला नही सकता था। केवल कार्यवाही में कम प्रभाव वाले आजादी के एक सिपाही के स्वस्थ विरोध के रुप में लिखित में दर्ज रह सकता है।”
लोहिया बैठक में गाँधीजी के अगले प्रस्ताव का जिक्र करते हैं,” श्री नेहरु और सरदार पटेल की ओर घूमकर गांधी जी ने अपनी दूसरी बात कही। वे चाहते थे कि कांग्रेस दल अपने नेताओं के वायदे को निभाए। इसलिए वे कांग्रेस से कहेंगे कि विभाजन के सिद्धान्त को मान ले। सिद्धान्त को मान लेने के बाद कांग्रेस को उसके कार्यान्वित करने के सम्बन्ध में घोषणा करनी चाहिए। उसे ब्रिटिश सरकार और वायसराय को परे हट जाने को कहना चाहिए। कांग्रेस और मुस्लिम लीग विभाजन की घोषणा करे। विभाजन प्रक्रिया को कांग्रेस और मुस्लिम लीग को साथ बैठकर बिना किसी हस्तक्षेप के सम्पन्न करना चाहिए।”
इस प्रस्ताव का सीमान्त गांधी के बड़े भाई डॉक्टर खान अकेले थे, जिन्होंने चीखकर विरोध किया। इसे पूर्णतया अव्यावहारिक बताया। अन्य किसी के विरोध की आवश्यकता ही नही थी, क्योंकि प्रस्ताव पर विचार ही नही किया गया। लोहिया कहते हैं,” तब भी मैंने सोचा था और आज भी मानता हूं कि यह एक अद्भुत नीतिकुशल चाल थी। मैंने डॉक्टर खान साहब का प्रतिवाद करते हुए कहा था कि इस प्रस्ताव की अव्यावहारिकता में ही तो इसकी खूबसूरती निहित है। यदि मिस्टर जिन्ना और कांग्रेस के प्रतिनिधि ब्रिटिश सहयोग के बिना देश का विभाजन कैसे हो, इस पर एकमत न हो सके तो हिन्दुस्तान का किसी तरह नुकसान न होगा। लेकिन मेरी हुज्जत पर कौन ध्यान देता? प्रस्ताव अपने आप में निपुण था। लेकिन कांग्रेस नेतृत्व के इस निश्चय के बाद कि वे देश की अखण्डता की कीमत देकर आजादी लेंगे,इस प्रस्ताव का कोई मतलब नही रह गया था।”
जिन्ना का सपना सच हो रहा था। अंग्रेजों का काम आसान। 03 जून1947 को लार्ड माउंटवेटन ने सत्ता के हस्तांतरण की योजना पेश की। देश को दो हिस्सों में बांटने की। बंटवारे के जहर का घूंट अमन-चैन की उम्मीद में पिया गया था। पर बंटवारा विपत्तियों का तूफान साथ लेकर आया। विभाजन के दंगों में मरने वालों की सही गिनती मुमकिन नही। पर ये लाखों में थी। दो करोड़ से ज्यादा आबादी का विस्थापन। विपदाओं का पहाड़। बदनसीबी ये कि कीमत आज तक चुकता हो रही है। अमन जिसकी चाहत में समर्पण किया, वह मंजिल अभी भी दूर है।
…. ……….. ….
स्त्रोत ;भारत विभाजन के गुनहगार :राम मनोहर लोहिया
सम्प्रति- लेखक श्री राजखन्ना वरिष्ठ पत्रकार है।श्री खन्ना के आलेख देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्रों,पत्रिकाओं में निरन्तर छपते रहते है।