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प्रसंग अर्णब: टीआरपी के लिए ‘मुर्गे’ लड़ाने के शौक में मारे गए ‘गुलफाम’- उमेश त्रिवेदी

उमेश त्रिवेदी

प्रसंग-अर्णब के विवादास्पद ’टैक्स्ट’ में प्रेस की कथित आजादी, पत्रकारों की कथित सुरक्षा, वैचारिक-विश्‍व में ’सहिष्णु’ भाजपा और ’असहिष्णु’ कांग्रेस, राजनीतिक आरोप और मार-पीट जैसे कई प्रसंग और सवाल मौजूद हैं। इस पटकथा की बुनावट मकड़ी के जाले जैसी कॉम्प्लेक्स है। कांग्रेस के हमले के विरूद्ध भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के समवेत सकारात्मक समर्थन के बाद अर्णब का मॉरल सातवें आसमान पर कुलांचे भर रहा है। बहरहाल, मसले में आपराधिक और न्यायिक पहलुओं की सांकेतिकता से आगे घटना के उन पहलुओं पर गौर करना जरूरी है, जो मीडिया की भूमिका विश्‍वसनीयता से जुड़े हैं। गोदी मीडिया के सुपर हीरो के नाते अर्णब गोस्वामी की कार्य शैली मीडिया की सेहत के लिए सवाल खड़े करती है। बीते सालों में सत्ता की साधना और तपश्‍चर्या ने अर्णब गोस्वामी को एक ऐसे अंतर्यामी पत्रकार के रूप में रूपान्तरित कर दिया है, जो लोगों के मन की बातों को पढ़ लेते हैं। सोनिया गांधी पर अनर्गल आरोपों के दरम्यान उनका यह करतब भी सामने आया है। अर्णब के ‘अंतर्यामी’ पत्रकार ने न जाने कैसे सोनिया के मन की थाह पा ली कि मन ही मन वो संतों की हत्या से बहुत खुश हैं और इटली यह रिपोर्ट भेजेंगी कि मैने एक ऐसी सरकार बना ली है, जो हिन्दू संतों को मरवा रही है।
अर्णब गोस्वामी वो पत्रकार हैं, जो सत्ता के लिए, सत्ता की ओर से, सत्ता के हित में सवाल पूछते हैं। वो उन एंकरों मे शुमार हैं, जो मोदी सरकार की असफलताओं के उत्तर भी कांग्रेस से मांगते हैं। कांग्रेस अथवा विपक्ष के नेताओं पर उनके गुर्राने की एक वजह यह भी है कि वो सत्ता से कोसों दूर हैं और उनके व्यवसायिक हितों को खतरा नही हैं। मुद्दा यह है कि संतो की मॉब लिंचिंग के मामले में यदि सोनिया गांधी की चुप्पी आपत्तिजनक है तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उन सवालों के दायरे से कैसे बाहर हो सकते हैं। मॉब-लिंचिंग, सांप्रदायिकता या अभिव्यक्ति जैसे संवेदनशील मुद्दों पर मोदी की शाश्‍वत खामोशी जग जाहिर है। मोदी की इस खामोशी के परिप्रेक्ष्य में अर्णब गोस्वामी हमेशा बगलें झांकते नजर आते हैं। ऐसे सवालों में वो शिवसेना या एनसीपी से भी किनारा कर लेते हैं, महाराष्ट्र में जिन्हें नजरअंदाज करना मुश्किल है। यहां राज ठाकरे के साथ उनकी मुठभेड़ दिलचस्प है।
अर्णब के साथ राज ठाकरे के कई इंटरव्यू यूट्यूब पर हैं, लेकिन 30 अक्टूबर 2016 का इंटरव्यू गौर तलब है। इसमें राज ठाकरे यह कहते दिख रहे है कि- ’’आपके चैनल पर प्रसारित एक खबर पर आपत्ति दर्ज कराते हुए मैंने आपके ही एक चैनल हेड से दो-तीन दिन पहले बात की थी कि मेरी खबरों को तोड़-मरोड़ कर क्यों दिखा रहे हैं… जो आप दिखा रहे हो, वैसा तो मैने नहीं कहा है…लंबीं बहस के बाद उस चैनल-हेड ने अपनी अंतिम सफाई में कहा था कि- ’राज तुम तो हमारी टीआरपी हो’… तो मैंने कहा था कि आपकी टीआरपी के लिए आप वाक्यों को चाहें जैसे ट्वीस्ट करेंगे’… ’टीआरपी के लिए ज्यादा नाटक मत करना’…नहीं, तो मै देख लूंगा’… और, यदि आप मेरी इस बात को धमकी मानते हैं, तो मानते रहें’…जरूरत होने पर मैं इसके मायने भी बता दूंगा…। राज ठाकरे जैसे नेता ही अर्णब को ठीक रखने मे सक्षम हैं। वैसे लोगों को प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनके इंटरव्यू की बॉडी लैंग्वेज भलीभांति याद है, जिसमे उन्होने एक भी असुविधाजनक सवाल नहीं पूछा था।
सोनिया गांधी के एपीसोड में ’इंडिया टुडे’ के मैनेजिंग डायरेक्टर राहुल कंवर के ट्वीट अर्णब की मनोदशा सही-सही बयां करते हैं। ट्वीट कहता है कि- शुरूआत में मुर्गों की लड़ाई भले ही नई लगे, लोग उसे देखें भी, लेकिन हर दिन वही मुर्गे, वही लड़ाई और वही नतीजे, बासेपन से दर्शक ऊबने लगते हैं, घटने लगते हैं, आप पगला जाते हैं कि घटते दर्शकों को कैसे रोका जाए..आप खुद को किनारे पर पाते हैं… कोई कितना नीचे जा सकता है… यह बड़ा सवाल है…? राहुल कंवल ने अपने प्रोफेशनल ट्वीट में अभिव्यक्त किया है कि इंडिया टुडे की बढ़ती दर्शक संख्या का ’पैनिक’ कहीं और नजर आ रहा है। कोई यूं ही दीवाना नहीं होता है। खबरों का ग्लोबल संसार काफी आगे जा रहा है, लेकिन उसके नेटवर्क को यह समझ ही नही है कि इस दौड़ को कैसे पार किया जाए? उसके पास एक ही फार्मूला है कि सांप्रदायिकता फैलाओ, पैसा कमाओ…। खुशी की बात है कि आम दर्शक इसे रिजेक्ट कर रहा है। कोरोना-महासंकट के दौर में मीडिया के सूत्रधारों में गहरी अंतर्दृष्टि, परिपक्वता और विनम्रता जरूरी है। इस दौर में हमें सांप्रदायिकता को पकाने के पाप से बचना चाहिए…।
’द वायर’ के अनुसार 1 दिसम्बर 2017 को सुनंदा पुष्कर की मौत से जुड़ी शशि थरूर की याचिका के समय दिल्ली हाईकोर्ट ने अर्णब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी को निर्देश दिए थे कि उन्हें कांग्रेस सांसद के चुप रहने के अधिकार का सम्मान करना चाहिए। हाईकोर्ट ने कहा था कि खबरों के प्रसारण पर रोक नहीं लगाई जा सकती, लेकिन संतुलन कायम किए जाने की जरूरत है। संतो के मॉब-लिंचिंग में सोनिया के चुप रहने के अधिकार का सम्मान करने की हाईकोर्ट की नसीहतों को अर्णब गोस्वामी क्या भूल चुके है?

 

सम्प्रति-लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 25 अप्रैल के अंक में प्रसाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह संपादक भी रह चुके है।