‘इरफान का पूरा नाम साहबजादे ’इरफान’ अली खान था और उनके पिता कहा करते थे कि वह पठान-परिवार मे पैदा हुआ ब्राम्हण है…वो शाकाहारी थे, उनके मन की हमदर्दी, दया और करूणा उन्हें शिकार करने से रोकती थी…।’
इरफान खान से संबंधित ऐसी अनेक जानकारियों से दुनिया भर की वेबसाइट्स, टीवी स्क्रीन और अखबारों के पन्ने भरे पड़े हैं…मौत के चंद मिनटों के भीतर ही इरफान खान के बारे में इतना कुछ शाया हो चुका है कि उनके लिए कुछ नया कहने या नया सोचने की गुंजाइश लगभग नहीं के बराबर है…। फिर भी हर कोई उनके बारे में कुछ कहने को शोकातुर है…भाव-विव्हल है…व्यग्र है…बेचैन है…। इस शोकातुरता की अपनी वजह है।
समाज में ’रील’ और ’रियल’ लाइफ के बीच खट्टी-मीठी तकरार हमेशा चलती रहती है। ’मूर्त’ और ’अमूर्त’ संसार के पात्रों में एक अजीबोगरीब घालमेल होता है। ’मूर्त’ व्यक्ति के भीतर पलने वाला उसका अपना ही ’अमूर्त’ पात्र भी होता है। हर ’मूर्त’ पात्र के पीछे-पीछे उसका अपना ही ’अमूर्त’ पात्र भी उसके साथ दौड़ता रहता है, खेलता रहता है, मचलता रहता है…जिंदगी की हकीकतों से दूर कल्पनाओं के सिल्वर-स्क्रीन पर वह भी गाता है…रोमांस करता है… हारता भी है… जीतता भी है…। जाने-अंजाने हर आदमी की जिंदगी का ’मूर्त पात्र’ अपने ’अमूर्त पात्र’ से खुद से ज्यादा प्यार करता है, उसे पसंद करता है और उसे छिपा कर भी रखता है…। इरफान खान ने खुद को भारतीय सिनेमा देखने वाले करोड़ो हिंदुस्तानियों के जहन और दिलो-दिमाग में सक्रिय इन ’मूर्त’ और ’अमूर्त’ पात्रों से एकाकार कर लिया था। इरफान लोगों के जहन में पलने वाली उसकी अपनी ही ’अमूर्त’ जिंदगी का ’मूर्त’ अथवा ’जिंदा तर्जुमा’ थे। उनका चले जाना आम लोगों के सपनों में पल रहे जिंदगी के उन ’अमूर्त’ पात्रों के बिखर जाने जैसा है, जो लोग इरफान के साथ सिल्वर-स्क्रीन पर जीते थे।
छोटी-बड़ी परछाइयां जिंदगी का अपरिहार्य और अनिवार्य हिस्सा होती है। रोशनी में परछाइयाँ जिंदगी के सुख-दुख से जुगलबंदी करती रहती हैं और अंधेरों में भी उनकी सांसे थमती नही हैं। भले ही दिखे नहीं, लेकिन अंधेरे में भी परछाइयां साथ नही छोड़ती है। बिम्ब और प्रतिबिम्बों के जादुई संसार में हर कहानी जुदा होती है। इस कहानी के क्राफ्ट को समझना और उसकी थाह पाना आसान नहीं है। इरफान खान उन्हे पसंद करने वाले करोड़ो दर्शकों की जिंदगी के सुख-दुख में पलने वाले बिम्बों का प्रतिबिंब जैसे थे। वह प्रतिबिंब कांच की तरह टूटकर बिखर गया है। उनकी सांसों का थम जाना आरोह के क्षणों में आलाप की चरमावस्था में अभिनय के सितार के तारों का टूट जाने जैसा है।
नाम लेना मुनासिब नहीं है, लेकिन चमत्कृत कर देने वाले बॉलीवुड के बड़े नामी सितारों की तरह सिनेमा-स्क्रीन पर इरफान खान की उपस्थिति कभी भी ’लार्जर देन लाइफ’ नहीं थी…वो हमेशा दर्शकों के बीच से उठकर सिल्वर स्क्रीन में दाखिल होते थे और शो खत्म हो जाने के बाद उन्हीं दर्शकों में कहीं गुम हो जाते थे। देश-काल और समाज के अलग-अलग कोनों में चहकती-सिसकती जिंदगी की जुदा-जुदा कहानियों के जिंदा किरदारों के रूप में दर्शकों के बीच से उठना, स्क्रीन पर जिंदगी को जीना और फिर उसी भीड़ में खो जाना ही इरफान खान को उन सितारों से अलग करता है, जो सिनेमा में आर्ट-कल्चर की तकनीकी नुमाइंदगी करते हैं। उनके अभिनय की नैसर्गिकता ने उन्हें बहुत कम समय में सितारों की बुलंदियों के नजदीक खड़ा कर दिया था, जो आसानी से हासिल नहीं होती हैं।
तकनीकी और व्यवसायिक विशेषज्ञता के साथ इरफान खान की फिल्मों, उनके किरदारों और मुकाम की चर्चाएँ लंबे समय तक होती रहेंगी। लेकिन ऐसे इंसान की तकदीर और तदबीर की उन रेखाओं को पढ़ना भी जरूरी है, जो उसे ऐसे मुकाम पर पहुंचाती हैं। लोगों को इरफान की वह चिट्ठी पढ़ना चाहिए, जो उन्होने न्यूरोएन्डोक्राइन कैंसर से जूझते हुए 18 जून 2018 को लिखी थी। इरफान का फलसफाना अंदाज उनकी जिंदगी की रवानी को बखूबी बयां करता है। मौत के रंग-ढंग आदमी के जिंदा होने के जज्बे को हमेशा परेशान करते रहते हैं। मौत के अनाम और गुमनाम मुकाम की अबूझ पहेली के दहशतजदा जवाब किसी के भी पास नहीं हैं। और, ना ही इस बात का इल्म है कि मौत का सामान एक कदम दूर रखा है अथवा कोसों दूर पड़ा है…। शायद इसीलिए मौत से आंखें चुराने में लोगों को राहत महसूस होती है। लेकिन इरफान की जिंदगी में हर कदम पर जिंदा मौत उनके साथ कदमताल करती थी। सफलता के सौर मंडल में विचरते इरफान का मौत के रूबरू निडर हो जाना उनकी शख्सियत के लोहे को खुद बयां करता है। हालात के मुकाबिल जीतना जिंदगी का जज्बा है और मौत के हाथों हारना जिंदगी की नियति है…लेकिन इरफान खान की तरह ऐसा नसीब बहुत कम लोगों का होता है कि वो हार कर भी जीत जाएं… लोगों के जहन में उनके किरदारों की मशाल हमेशा जलती रहेगी…।
सम्प्रति-लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 30 अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह संपादक भी रह चुके है।