रिया चक्रवर्ती की तरह कंगना रानौत भी लोकप्रियता की उस टीआरपी का हिस्सा हैं, जिसकी जुगाड़ में लोग अंगारे फांकने लगते हैं, जिसे हासिल करने के लिए वो जमीन-आसमान एक कर देते हैं। फर्क सिर्फ फलक का है। एक तरफ मीडिया का गुमान का है, तो दूसरी तरफ राजनीति के अरमान हैं। रिया चक्रवर्ती के खिलाफ टीवी-स्क्रीन पर जारी घमासान मीडिया ट्रायल जहां खबरिया चैनलों की टीआरपी के ग्राफिक्स को आंकड़ों को सुर्ख बना रहे हैं, वहीं कंगना रानौत की सनसनीखेज राजनीतिक अदाएं नेताओं को अपनी टीआरपी बढ़ाने का न्यौता दे रही हैं। दोनों में एक फर्क यह भी है कि टीआरपी की मुठभेड़ में रिया चक्रवर्ती शिकारियों के उस झुंड के सामने बेबस खड़ी है, जो टीआरपी के स्वर्ण-मृग के पीछे पागलों की तरह दौड़ रहा है, जबकि कंगना रानौत एक सुनियोजित रणनीति के तहत ग्लैमर की रंगीन पिचकारियां छोड़ रही हैं।
9 सितंबर 2020 के दिन जब कंगना हिमाचल के मनाली से उड़कर मुंबई पहुंचेंगी तब वो भारत-सरकार के विशेष सुरक्षा कवच की अभेद्य रक्षा टुकड़ी के घेरे में होंगी। गृह मंत्रालय ने उन्हें ’वाय-प्लस’ कैटेगरी के सुरक्षा-कवच से नवाजा है, ताकि वो मुंबई में सत्तारूढ़ शिवसेना और उनके सरकारी कारिन्दों के खिलाफ मुकाबले दहशतजदा साबित नहीं हों। महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना का राजनीतिक द्वंद्वंद किसी से छिपा नहीं हैं। महाराष्ट्र सरकार केन्द्र के निशाने पर हैं और गृहमंत्री अमित शाह मौके की तलाश में हैं। सुशांत राजपूत की आत्म हत्या के एपीसोड में बिहार के चुनाव में केन्द्रीय जांच एजेन्सियों के जरिए जारी मूर्त व्दंद में कंगना रानौत भाजपा का अमूर्त प्रतिनिधित्व करती नजर आ रही हैं।
शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत और कंगाना रानौत के बीच जारी जुबानी-जंग की सुर्खियां भाजपा को रास आ रही हैं। कंगना को सुरक्षा कवच प्रदान कर भाजपा ने उनकी जुबानी-जंग का एक तरह से अनुमोदन कर दिया है। शिवसेना ने इस मुद्दे को महाराष्ट्र और सरकार की अस्मिता से जोड़ दिया है। अपनी गिनी-चुनी फिल्मों के जरिए एक बेहतर अभिनेत्री की छवि बनाने वाली कंगना रानौत ने राजनीति के मैदान में जो सिक्का उछाला है, उसके दोनों ’सरफेस’ पर सिर्फ ’हेड’ का निशान ही बना है। अपनी बम्बइया फिल्म ’मणिकर्णिका’ में झांसी की रानी की भूमिका का निर्वाह करने वाली कंगना रानौत राष्ट्रवाद के प्रखर प्रवक्ता के रूप में अपनी छबि चमकाना चाहती हैं। सुरक्षा के बहाने कंगना ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को जो समर्थन हासिल किया है, वह दुर्लभ है।
कंगना रानौत के साथ शिवसेना और महाराष्ट्र के कांग्रेस-नेताओं की शाब्दिक-जंग मीडिया में जबरदस्त सुर्खिया बटोर रही है। जहां भाजपा अप्रत्यक्ष तरीके से कंगना को प्रोत्साहित कर रही हैं, वहीं शिवसेना और कांग्रेस के कंगना पर अपने शब्दभेदी बाण चला रहे हैं। ट्वीटर की दुनिया में ये बयान ऊंची उड़ान भर रहे हैं। दोनो छोरों पर भाषा के प्रयोग ने मुंबई के समावेशी-माहौल को आहत किया है। कंगना रानौत को संजय राउत का ’हरामखोर’ कहना शब्दों के बेरहम प्रयोग का उदाहरण है। राउत का यह कहना कि उनके शब्द-प्रयोगों को हलका नहीं कर सकता कि अगर कोई राजनीति करना चाहता हैं या फिर इस बात पर माहौल बनाना चाहता है कि तो किसी भी शब्द का कोई भी मतलब निकाला जा सकता है। वो स्पष्ट करते हैं कि ’मैने अपनी भाषा में कंगना रानौत को बेईमान कहा है’। यह स्पष्टीकरण कमजोर है। इसके विपरीत शिवसेना की नाराजी मुंबई को ’पाक अधिकृत कश्मीर’ निरूपित करने पर है। शायद उनके इसी कथन पर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने कहा है कि लोग मुंबई का उपकार याद नहीं रखते हैं।
बहरहाल, राजनीति के सार्वजनिक मंचो पर व्यक्त शब्दों का संयम खोता जा रहा है। राजनीतिक समझ और समन्वय के दायरे सिमटते जा रहे हैं। राजनीति में शब्दों के अनियंत्रित और नासमझ प्रयोगों में अभिव्यक्ति की खनक बिखरती जा रही है। सभी दलो में प्रवक्ताओं की ऐसी फौज सक्रिय है, जो महज शब्दों का झुनझुना बजाते महसूस होते हैं। झुनझुना देशज अंदाज में छोटे-छोटे मासूम बच्चों को बहलाने वाला वह खिलौना है, जिसे लयबद्ध करना संभव नही है। पार्टी प्रवक्ताओं की नियति झुनझुनों की तरह है, जिनकी आवाज में शोर तो होता है, लेकिन लयबद्धता का अनुशासन नहीं होता है।
दिक्कत यह है कि कंगना रानौत के राजनीतिक अवतरण में उन खोटे सिक्कों की टंकार है, जो बगैर किसी राजनीतिक संघर्ष के जमीन पर उतर रहे हैं। कंगना भी उसी झुनझुने का प्रतिरूप है, जिसका काम बच्चों को बहलाना होता है। दिक्कत यह राजनीति मे खोटे सिक्के का बाजार काफी गर्म है। जनता की राजनीतिक टकसाल में ऐसे खोटे सिक्के ढलने लगे हैं, जो राजनीतिक व्यापार को गंदा कर रहे हैं। ओशो रजनीश ने कहा है कि राजनीति थर्मामीटर है पूरी जिंदगी का। वहां जो होता है, वह सब तरफ जिंदगी में हो जाना शुरू हो जाता है। राजनीति में बुरा आदमी अगर है तो जीवन में सभी क्षेत्रों में बुरे आदमी सफल होने लगेगें और अच्छे आदमी हारने लगेगें. किसी देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है कि वहां बुरा होना सफलता लाता हो, भला होना असफलता का वाहक हो…। अब तो लगता है कि राजनीति खोटे सिक्कों की कलदार दुनिया के रूप में विस्तृत होती जा रही है, जहां बेसुरे झुनझुनों का बोलबाला नजर आ रहा है।
सम्प्रति-लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एवं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है।यह आलेख सुबह सवेरे के 09 सितम्बर के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह संपादक भी रह चुके है।