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ई.डब्लू.एस. के लिए आरक्षण का उच्चतम न्यायालय का निर्णय कितना तार्किक ? – रघु ठाकुर

                                        रघु ठाकुर

उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ का आर्थिक कमजोर वर्गां को भारतीय संसद के द्वारा किये गये 10 प्रतिशत आरक्षण के प्रस्ताव और उस पर सरकार तथा न्यायपालिका की मोहर के बारे में संविधान पीठ का फैसला आ गया है।

ई.डब्लू.एस. को 10 प्रतिशत आरक्षण के खिलाफ अनेक जनहित याचिकायें सर्वाच्च न्यायालय के समक्ष लगाई गई थी तथा याचिकाओं पर विचार करने के लिये सर्वाच्च न्यायालय ने संविधान पीठ का गठन किया था। इस पांच सदस्यीय पीठ में मुख्य न्यायाधीश यू.यू. ललित, जस्टिस एस. रवीन्द्र भट्ट, बेला एम. त्रिवेदी, जे.बी. पारदीवाला और जस्टिस दिनेश महेश्वरी शामिल थे। संविधान पीठ ने 3 बनाम 2 के बहुमत से ई.डब्लू.एस. के आरक्षण को वैध ठहराया है। सर्वोच्च न्यायालय की प्रक्रिया के अनुसार किसी भी पीठ के फैसले को अंतिम माना जाता है। हालाकि असहमति वाले न्यायाधीशों के पृथक निर्णय भी दर्ज किये जाते हैं। यह एक प्रकार से सर्वाच्च न्यायालय के निर्णयों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। जो असहमति के अधिकार को बहुमत के समक्ष दर्ज करने की स्वीकृति देती है।

वैसे तो सर्वाच्च न्यायालय का निर्णय हम सभी को मान्य है परन्तु सुप्रीम कोर्ट की लोकतांत्रिक प्रक्रिया आम नागरिकों को भी अपना पक्ष या विपक्ष की राय को देखने का अधिकार और अनुमति देती है। इसी आधार पर मैं सर्वाच्च न्यायालय के निर्णय की मीमांसा करूगा।

मेरी राय में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत याचिकाओं में दो महत्वपूर्ण संवैधानिक मुद्दे थे :-

  1. क्या आरक्षण का आधार संविधान के अनुसार आर्थिक हो सकता है ?
  2. क्या आर्थिक रूप से कमजोर वर्गां के लिये 10 प्रतिशत आरक्षण देना सुप्रीम कोर्ट द्वारा खींची गई स्व लक्ष्मण रेखा के 50 प्रतिशत की सीमा की मर्यादा का उल्लंघन करता है ?

जहाँ तक प्रथम बिन्दु का सवाल है तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14-15-16 को देखना होगा। संविधान में स्पष्ट कहा गया है कि ‘‘भारत सरकार उन जातियों और वर्गां की पहचान करेगी जो शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े हैं।’’ इसमें कहीं भी आर्थिक शब्द का उल्लेख नहीं है अगर हम संविधान सभा की बहस को भी पढ़े तो उसमें भी कहीं आर्थिक आधार पर आरक्षण का निर्णय नहीं है। संविधान ने स्पष्ट तौर पर सामाजिक तौर पर पिछड़े जाति और समूहों को ही पिछड़ेपन की कसौटी माना है। समूह या वर्ग से मतलब भी आदिवासी जिन्हें तकनीकी रूप से अनुसूचित जनजाति कहा जाता है उनके संदर्भ में है।

भारत सरकार बनाम इन्द्रा साहनी के प्रकरण में भी जिसमें तत्कालीन भारत सरकार के द्वारा मण्डल कमीशन की सिफारिश के आधार पर पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण देने के निर्णय पर गंभीर बहस हुई थी। और आर्थिक आधार पर क्या आरक्षण दिया जा सकता है इसकी भी चर्चा हुई थी। सर्वाच्च न्यायालय के तत्कालीन पीठ ने स्पष्ट कहा था कि आरक्षण की कसौटी केवल किसी जाति या समूह का सामाजिक शैक्षणिक पिछड़ापन है तथा इस सामाजिक न्याय की भावना को नीचे तक पहुंचाने और अधिकतम पात्रों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से इन जातियों या समूहों के बीच में आर्थिक आधार की सीमा रखी जा सकती है। यानि शैक्षणिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों में जो संपन्न अति संपन्न लोग है या जो शैक्षणिक या प्रशासनिक आधार पर कुछ उच्च स्थिति प्राप्त कर सके है उनके बजाय उन जातियों या समूहों के उन लोगों को आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिये जो शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़े तो हैं ही साथ ही आर्थिक स्थिति में भी कमजोर है। यह एक प्रकार से सामाजिक न्याय और आरक्षण को अधिक तार्किक बनाने की इच्छा व्यवस्था बनाने का निर्देश था न कि भारतीय संविधान में अनु. 14 एवं 15 में आर्थिक कसौटी को जोड़ने का। इसलिये मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के इन तीन जजों का यह विश्लेषण कि आरक्षण का आधार आर्थिक कसौटी हो सकती है असंवैधानिक है। जिसका संकेत विपरीत टिप्पणी लिखने वाले मुख्य न्यायाधीश और उप न्यायाधीश की व्याख्या से मिलता है।

सर्वोच्च न्यायालय के आर्थिक आधार पर आरक्षण इस नव गढ़े सिद्धांत के आधार पर क्या शेष 40 प्रतिशत स्थान भी केवल आर्थिक गरीबों के लिये आरक्षित किये जा सकते हैं? यह भी प्रश्न उठेगा? हालाकि निजी तौर पर मैं इस मत का हूं कि, सभी सरकारी नौकरियां आरक्षित नौकरियों को छोड़कर तथा विशेषज्ञों वैज्ञानिकों या उच्च शिक्षा के विषय को छोड़कर गरीबों को ही दी जानी चाहिये। 50 प्रतिशत आरक्षित जातियों के गरीबों को तथा शेष पचास प्रतिशत आरक्षित या अनारक्षित सभी जातियों के गरीबों को देना चाहिये। दूसरा बिन्दू सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा खींची गई 50 प्रतिशत सीमा रेखा का है। यह सीमा रेखा संविधान ने नहीं खींची है बल्कि सुप्रीम कोर्ट के सामान्य संतुलन भाव ने खींची है।

यह सीमा रेखा संविधान संगत नहीं है, हालाकि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के कारण बाध्यकारी और मान्य है। यद्यपि सुप्रीम कोर्ट के द्वारा खींची गई सीमा रेखा देश के एक बड़े समूह की नज़रों में सुप्रीम कोर्ट की संकीर्ण और उसके जातिवादी सोच को सिद्ध करती है। बहरहाल अपने इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी स्वतः खींची लक्ष्मण रेखा को पार कर दिया है। और इसके लिये कोई तार्किक आधार जानने का और तथ्यों को प्रस्तुत करने के लिये सरकार को आदेश देने का कार्य नहीं किया। अच्छा होता कि सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णय के पूर्व भारत सरकार को निम्न कार्य क्रियान्वयन करने को कहता।

  1. देश के जातिगत जनगणना की रपट माँगता।
  2. सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों में विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, उच्च शिक्षा आदि के पदों को छोड़कर सभी जातियों और समूहों का संख्यावार विवरण प्रस्तुत करने के लिये भारत सरकार से कहता।

अगर यह सब तथ्यात्मक जानकारी भारत सरकार के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय के पटल पर आई होती और फिर सर्वोच्च न्यायालय अपनी जानकारी के अनुसार अपनी राय बनाता या निर्णय लेता तो वह व्यापक रूप से जन विश्वसनीय होता। तथा देश उसे न केवल मन से स्वीकार करता बल्कि न्यायपालिका की साख भी इससे बढ़ती। अब आम देश की मन स्थिति इस निर्णय को तार्किक या आम सहमति के आधार पर मानने की नहीं है। हालाकि बाध्यता के रूप में स्वीकारना उनकी लाचारी है।

आर्थिक रूप से कमजोर वर्गां को आरक्षण देने का समर्थन करने वाले एक माननीय न्यायाधीश महोदय ने अपने निर्णय में यह भी टिप्पणी की है की अब आरक्षण की व्यवस्था पर ही पुनर्विचार होना चाहिये और उन्होंने इस संदर्भ में बाबा साहब के एक कथन का उल्लेख भी किया है, जिसमें उन्होंने कहा कि, आरक्षण की व्यवस्था आजीवन नहीं है बल्कि 10 वर्षां में इस पर पुनर्विचार करना चाहिये। कितना अच्छा होता कि बाबा साहब की भावनाओं को क्रियान्वित करने और जमीन पर उतारने के लिये माननीय जज महोदय यह आदेश भी करते हैं कि आरक्षण के बीते 70 वर्षों में आरक्षित जातियों और समूहों में कितना सुधार हुआ ? क्या वे अपनी संख्यात्मक भागीदारी के समतुल्य भागीदारी प्रशासनिक या नौकरियों में हासिल कर सके हैं ? अगर नहीं कर सके तो इसके क्या कारण हैं? तो इसे कैसे पूरा किया जाये? और भी अच्छा होता अगर माननीय जज साहब स्व. मधुलिमये की उस हस्तक्षेप याचिका के मूल आधार पर विचार कर निर्णय करते जिसमें उन्होंने इन्द्रा साहनी प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि एक स्थाई जन भागीदारी का स्थायी जांच आयोग बने जो प्रशासनिक और अन्य नौकरियों में जन-जाति समूह-भागीदारी का अध्ययन करें। जिस जाति की भागीदारी या संख्या तुलनात्मक रूप से समतुल्य हो जाये उसे आरक्षित वर्ग से अलग कर दिया जाये तथा जिसकी संख्या कम हो उसे आरक्षित वर्ग में शामिल कर लिया जाये।

एक जज साहब के ऊपर समाज के कुछ हिस्से से व्यक्तिगत टिप्पणियां भी आई हैं जो उनकी नियत पर संदेह करती है। जैसे कुछ लोगों ने जस्टिस पारदीवाला के बारे में लिखा है कि गुजरात में हार्दिक पटेल बनाम गुजरात सरकार प्रकरण में उन्होंने टिप्पणी की थी कि दो चीजों ने देश को तबाह किया है।‘‘पहला आरक्षण और दूसरा भ्रष्टाचार।’’ उनकी इस टिप्पणी से आहत होकर 98 सांसदों ने राज्यसभा में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्तुत किया था और उन्होंने अपनी टिप्पणी को स्वतः खारिज कर यू टर्न लेकर अपना बचाव किया था। ऐसा ही यू टर्न वे भाजपा प्रवक्ता नुपूर शर्मा के संबंध में डायस पर बैठकर टिप्पणी कर और बाद में अपनी ही कलम से अपनी टिप्पणी के विपरीत आदेश देकर ले चुके हैं।

मैं उनके बारे में कोई निजी टिप्पणी नहीं करूंगा। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के नव नियुक्त मुख्य न्यायाधीश महोदय से यह अपील अवश्य करूंगा कि सर्वोच्च न्यायालय को पक्ष विपक्ष की प्रतिक्रियाओं से बचाव और न्यायालय की साख को बचाने के लिये निम्न तीन बिन्दुओं पर विचार के लिये सर्वाच्च न्यायालय की पूर्णपीठ को पुर्नविचार हेतु प्रकरण सौपना चाहिए :-

  1. क्या केवल आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान सम्मत है?
  2. क्या आर्थिक कमजोर वर्गां के लिये आरक्षण दिया जाना संविधान के अनुकूल है ? जबकि एक न्यायाधीश महोदय ने स्वतःयह लिखा है कि समाज में सम्मान की कसौटी आर्थिक नहीं है, बल्कि जाति है। हम लोग भी आये दिन अपने जीवन में यह देखते हैं कि अमीर या अति सम्पन्न व उच्च शिक्षित पिछड़ा और दलित, गरीब, ब्राम्हण या सवर्ण के पैर पड़ता है यहां तक की 80 साल का दलित या पिछड़े यानि शूद्र को भी हमने कम उम्र के सवर्ण बच्चों के पैर पड़ते देखा है। क्योंकि जाति श्रेष्ठता और जातिहीनता उनके मन में स्थापित है और यह देश के बड़े हिस्से में अभी भी प्रचलित है।
  3. राष्ट्रीय एकता और समन्वय व आरक्षण की तार्किकता के लिये आरक्षण की सभी जाति समूहों की उनकी संख्या के अनुपात में हिस्सेदारी तथा पूर्ण होने पर स्वसमापीय योजना शुरू करें और स्थाई जांच आयोग का गठन हो।

 

सम्प्रति- लेखक श्री रघु ठाकुर जाने माने समाजवादी चिन्तक और राम मनोहर लोहिया के अनुयायी हैं।श्री ठाकुर लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी के भी संस्थापक अध्यक्ष हैं।