अटेर, चित्रकूट, मुंगावली और कोलारस में अपनी सीटें बचाने में कामयाब रहने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं और नेताओं के हौसले हिमालयीन उछाल मारने लगे हैं और उनके मन में यह भरोसा पैदा हो रहा है कि शिवराज के आभामंडल का कांग्रेस एक सीमा तक सामना करने में सफल हो रही है। कांग्रेस इन नतीजों से भले ही उत्साहित हो रही हो लेकिन उसे यह याद रखना होगा कि यदि कोलारस और मुंगावली के उपचुनाव 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव के पूर्व सेमीफायनल के रूप में लड़े गये थे तो उसने अभी केवल सेमीफायनल फतेह किया है। फायनल और सेमीफायनल में टकराने वाली टीमें एक ही हों तो फिर यह भी याद रखना होगा कि सेमीफायनल की जीत फायनल मुकाबले में फतेह की गारंटी नहीं मानी जा सकती और न ही जो टीम सेमीफायनल हार गई है वह फायनल भी हार जायेगी। अटेर, मुंगावली और कोलारस की जीत का श्रेय यदि किसी एक व्यक्ति को जाता है तो वह ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं जबकि चित्रकूट की जीत का श्रेय किसी एक व्यक्ति को जाता है तो वह नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह हैं। चित्रकूट, मुंगावली और कोलारस के चुनाव में कांग्रेस ने जो प्रदर्शन किया उसके पीछे यदि संगठनात्मक तौर पर देखा जाए तो कांग्रेस ने ये चुनाव अटेर से प्रेरणा लेकर अधिक एकजुटता व एक टीम भावना के साथ लड़े थे। कांग्रेस में गुटबंदी यदि धीरे-धीरे हाशिए पर जा रही है और प्रदेश से जुड़े दिग्गज नेता एकसाथ नजर आने लगे हैं तो इसका श्रेय प्रदेश कांग्रेस प्रभारी महासचिव दीपक बावरिया को जाता है। बावरिया कार्यकर्ताओं की पीड़ा और मनोभावों को समझ रहे हैं और उनकी कार्यप्रणाली से कार्यकर्ताओं को भी यह भरोसा हो चला है कि बावरिया उनके और हाईकमान के बीच सेतु का काम अच्छे से कर सकते हैं। लगभग पिछले डेढ़-दो दशक से कांग्रेस कार्यकर्ता यह महसूस करने लगे थे कि पार्टी में उनकी सुनने वाला कोई बड़ा नेता नहीं है और वे आखिर अपने मन की पीड़ा किसको सुनायें। ऐसे कांग्रेसजनों के लिए बावरिया एक आशा की किरण लेकर आये जो धैर्यपूर्वक उनकी बातें सुनते हैं। कार्यकर्ता भी उनसे मिलकर अपने आपको हल्का महसूस करता है कि कम से कम उन्होंने अपनी पीड़ा का इजहार तो कर दिया है।
मुंगावली और कोलारस उपचुनावों में भाजपा द्वारा सत्ता व संगठन की समूची ताकत झोंकने के बाद भी आखिरकार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पूर्व केंद्रीय मंत्री कांग्रेस सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के किले में सेंध लगाने में भले ही सफल न हुए हों लेकिन जिस ढंग से भाजपा और कांग्रेस के बीच 2013 की तुलना में जीत-हार का अन्तर काफी कम हो गया है उसने इस बात के संकेत अवश्य दे दिए हैं कि सिंधिया को भी अब अपने गढ़ में और अधिक चौकन्ना रहने की जरूरत है। शिवराज बनाम सिंधिया के बीच इन उपचुनावों में जो चुनावी संघर्ष तब्दील हो गया था उसमें निश्चित तौर पर पलड़ा सिंधिया का ही भारी रहा। समूची सरकार और संगठन से मुस्तैदी से जूझते हुए दोनों सीटें बचाने में सिंधिया ने जो सफलता हासिल की है उससे उनका कद कांग्रेस में और बढ़ गया है। हार के बाद कुछ आलोचनाएं होना स्वाभाविक है और भाजपा में कुछ हलचल पैदा हो रही है, लेकिन लगता है अंतत: यह हिलोरें किसी नतीजे पर पहुंचने के स्थान पर किनारे से टकरा कर थम जायेंगी। भाजपा के मतों में हुए इजाफे से राष्ट्रीय नेतृत्व कतई खुश नहीं है और वह पार्टी की हार के लिए जिम्मेदारी तय करने संगठन के जिम्मेदार लोगों से जवाब तलब करेगा तथा पार्टी को और अधिक चुस्त-दुरुस्त बनाने की कवायद तेज होगी। आने वाले कुछ समय के बाद ही यह पता चल सकेगा कि केवल प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान को अकेले बदला जायेगा या सुहास भगत के स्थान पर कोई नया प्रदेश संगठन महामंत्री भी आयेगा या फिर दोनों ही अपने पदों पर बने रहेंगे। 2018 के फायनल में जाने के पूर्व शिवराज को भी अब अपने तरकश में कुछ नये तीर सजाने होंगे क्योंकि पुराने बहुत से तीर पिछले कुछ उपचुनावों में निस्तेज साबित हो चुके हैं। उनकी चुनाव जिताऊ छवि में नया निखार किस ढंग से लाया जा सकता है इस पर भी अब चिंतन-मनन का समय है। उपचुनावों के नतीजे भी यही संकेत देते हैं कि अब नई शैली व नये ढंग से कुछ ऐसी रणनीति बनानी होगी जो कि नये पैकेजिंग में हो और मतदाताओं के गले भी उतर सके।
प्रदेश कांग्रेस प्रभारी के रूप में दीपक बावरिया ने जबसे अपनी जिम्मेदारी संभाली है वे नये-नये प्रयोगों और तौर-तरीकों से कांग्रेस का आधार बढ़ाने में भिड़े हैं। लम्बी-लम्बी मैराथन बैठकें कर रहे हैं और कार्यकर्ताओं व स्थानीय नेताओं को अपनी बात कहने का पूरा अवसर दे रहे हैं। इससे पूर्व कांग्रेस में किसी भी प्रदेश प्रभारी ने इतना समय नहीं दिया था। कार्यकर्ताओं की बात वे सुनते हैं लेकिन अपनी बात भी कड़ाई से सामने रखते हैं यही कारण है कि अब नेताओं के नाम पर व्यक्तिगत नारेबाजी का शोरशराबा थम गया है जो कि इससे पूर्व की बैठकों में शक्ति प्रदर्शन का एक शार्टकट हुआ करता था। इसलिए कहा जा सकता है कि वे एक सीमा तक पार्टी में अनुशासन लाने में सफल रहे हैं। पूर्व प्रदेश कांग्रेस प्रभारी वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं को एकसाथ लाने में सफल नहीं हो पाते थे जबकि बावरिया इसमें सफल हो रहे हैं। चित्रकूट, मुंगावली और कोलारस के विधानसभा उपचुनाव में सभी गुटों व धड़ों के नेता यदि सक्रिय रहे, चुनाव प्रचार किया तो उसका श्रेय भी बावरिया को ही जाता है। बावरिया के आने के बाद कांग्रेस में अधिक गति आई है और कांग्रेस का सदस्यता अभियान भी 20 लाख के लक्ष्य को प्रदेश में छू सका है जो कि पूरे देश में एक छोटे राज्य केरल के बाद दूसरे नम्बर पर है। वैसे 2013 के बाद कांग्रेस ने पूर्व में एक लोकसभा और एक विधानसभा उपचुनाव जीता था बाकी जो भी उपचुनाव हुए वे भाजपा ने ही जीते। बावरिया ने प्रदेश में कुछ नये प्रयोग किए हैं। प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री संगठन चंद्रिका प्रसाद द्विवेदी ने बताया है कि 65 हजार बूथ कमेटियां, 6500 सेक्टर कमेटियां, 2200 मंडलम, 800 ब्लाक कमेटियों के गठन की प्रक्रिया अंतिम चरण में है और शीघ्र ही पूरी हो जाएगी।
बावरिया कांग्रेस में नये-नये प्रयोग कर रहे हैं और उन्हें जमीनी धरातल पर पहुंचाने का समय अब कांग्रेस के पास नहीं है इसलिए कुछ शार्टकट अपनाते हुए जमीनी स्तर पर कांग्रेस को विभिन्न जन-समस्याओं को लेकर बड़े आंदोलनों को खड़े करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही ब्लाकों की संख्या में जो वृद्धि हो रही है उसे भी अभी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की स्वीकृति की दरकार है क्योंकि यह उसके ही अधिकार क्षेत्र में आता है। जिस ढंग से छत्तीसगढ़ में वहां के नये प्रभारी पी.एल. पूनिया ने जमीनी स्तर पर आक्रामकता के साथ कांग्रेस को सक्रिय कर दिया है उस भूमिका में बावरिया के आने का मध्यप्रदेश में कांग्रेसजनों को इंतजार है। कोलारस और मुंगावली उपचुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद फिर नये सिरे से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के मुकाबले ज्योतिरादित्य सिंधिया को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाकर 2018 के विधानसभा चुनाव के समर में जाने की मांग उठने लगी है। कमलनाथ ने पुन: कहा है कि सिंधिया को कांग्रेस मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करती है तो वे इसका स्वागत करेंगे और उन्हें खुशी होगी। इसके साथ वे यह भी कहते हैं कि चेहरे का ऐलान जल्द कर देना चाहिए क्योंकि दिसम्बर में यहां चुनाव होने वाले हैं। ऐसी ही मांग करते हुए वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री हजारीलाल रघुवंशी ने कहा है कि सिंधिया को चेहरा घोषित कर पार्टी को चुनाव लड़ना चाहिए। इससे पूर्व भी कई वरिष्ठ विधायक व युवा विधायक भी ऐसी ही मांग समय-समय पर करते रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी चेहरा घोषित न करने की परम्परा जारी रखते हैं या समय की मांग के अनुसार उसमें कोई बदलाव करते हैं। देखने की बात यही होगी कि पुरानी परंपरा से कांग्रेस चिपके रहकर एम्बेसडर कार बनना पसंद करेगी या कुछ बदलाव करेगी।
सम्प्रति-लेखक श्री अरूण पटेल अमृत संदेश रायपुर के कार्यकारी सम्पादक एवं भोपाल के दैनिक सुबह सबेरे के प्रबन्ध सम्पादक है।