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हे प्रभु! क्या ग़लती हो गई हम पृथ्वी-वासियों से? क्या हम से राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और धार्मिक संसार की भौतिक आराध्य-मूर्तियों के चयन में ग़लती हो गई?क्या हम से अपनी धरती को नाहक ही स्पर्धा, स्वार्थ और निजी सनकपूर्ति की दिशा में धकेल देने की ग़लती हो गई?कुछ तो हुआ, प्रभु, कि आपने तक़रीबन पूरी पृथ्वी को एक जीवाणु की ज़ंजीर में जकड़ दिया।पृथ्वी-वासियों से जो भी हुआ प्रभु, मगर आप तो करुणावतार हैं। कई और भी समझते होंगे, लेकिन मैं तो समझता ही हूं, प्रभु, कि आपकी करुणा भी अगर जवाब दे गई है तो वज़ह मामूली नहीं है।
सो, आपने जो किया, ठीक किया। आप अगर आज यह अर्द्ध-विराम नहीं लगाते तो कल तो बहुत देर हो जाती। आप हस्तक्षेप न करते तो आ़िख़र जिस तरफ़ हमारी धरती को यह चूसक-मंडली ले कर जा रही है, वह इनके भी मतलब की कब तक रहती? सियासत की सारी सकारात्मकता को चूस कर उसकी खोल में घनघोर नकारात्मकता उंड़ेल देने वाले आख़िर कौन हैं? सारी सामाजिकता को पोला कर उसकी नाभि में नफ़रत भर देने वाले कौन हैं? सारी सांस्कृतिकता को खोखला कर उसके गर्भ में अप-संस्कृति बो देने वाले कौन हैं? सारे अर्थशास्त्र को एकतरफ़ा बना कर उसके केंद्र से वंचितों को विदा कर देने वाले कौन हैं? सारे धर्मशास्त्रों में सूराख़ कर शीर्ष पर बैठ गए छद्माचार्यों को पूजने वाले कौन हैं?
तो जैसी पृथ्वी हम बना रहे थे, उस पृथ्वी का हम पृथ्वी-वासी करते भी क्या? ऐसी पृथ्वी का तो, प्रभु, अंततः आप भी भला कैसे उद्धार करते? सो, मैं तो नत-मस्तक हूं कि आपने समय रहते हमें अपनी ख़ुमारी से इस कदर झिंझोड़ दिया। इतने पर भी अगर हम जागने को तैयार न हों, इतने पर भी अगर हम मानने को तैयार न हों, तो हमें जाने दीजिए कोरोना की भाड़ में।
प्राण तो सब के एक-न-एक दिन जाने ही हैं। कल जाते हों, आज चले जाएं। लेकिन ज़रा ठीक से तो जाएं! यह क्या कि एक जीवाणु ने पूरी मानव-जाति को घरों में बंद कर दिया? नाना पाटेकर ने तो हमें 24 साल पहले आई एक बंबइया फ़िल्म में ही आग़ाह कर दिया था कि ‘‘एक मच्छर …. आदमी को ….. बना देता है’’। लेकिन हम समझने को तैयार कहां हुए? अगर तभी समझ जाते कि एक खटमल पूरी रात को अपाहिज बना देता है तो आज यह हाल क्यों होता? महा-मानवों को तो छोड़िए, नाना तक कह-कह कर तंग आ गया था कि हमारी आत्मा और अंदर का इंसान मर चुका है, जीने के घिनौने समझौते कर चुका है और लंगोटी भले ही खद्दर की है, पीक-दान तो चांदी का है, लेकिन हमने सुनने से इनकार कर दिया।
हम किसी फ़िल्मी पाटेकर की क्या सुनते? हमने गौतम और गांधी की नहीं सुनी। हमने अपनी परंपराओं की नहीं सुनी। हमने धरती के शाश्वत मूल्यों की नहीं सुनी। इसलिए प्रभु, आज हम जो आपके सामने गिड़गिड़ा रहे हैं, आज जो हम बिलबिला रहे हैं, हमारी सुनवाई करने से पहले यह अच्छी तरह समझ लेना कि हम अपनी प्रेमचोपड़ाई से मजबूर हैं। आपकी करुणा टपकी नहीं कि हम फिर अपनी पिस्तौल झपट लेंगे। हम फिर अपनी पिस्तौल तान लेंगे।
आज तो प्राणों पर बनी है, सो, ‘फिर कभी नहीं करूंगा’ की मुद्रा में हम घुटने टेक कर बैठ गए हैं। लेकिन, हे भोले-भंडारी, यह मत समझ लेना कि इस आपदा से निकलने के बाद हम पृथ्वी और उसके वासियों को चूसना बंद कर देंगे। सब को फिर चूसेंगे। मनुष्यों को, पशुओं को, पक्षियों को, नभचरों को, जलचरों को, वनस्पतियों को, सब को। एक-दूसरे को चूसने से हम कैसे बाज़ आएंगे?
आप क्या समझते हैं, इसके बाद हम धरती को मुल्क़ों की सरहदों में बांट कर लड़ेंगे नहीं? हम मानव-जाति को नस्लों और सूुदायों में बांट कर मार-काट मचाना बंद कर देंगे? हम अपने नाभिकीय अस्त्रों को सातों समंदर के हवाले कर देंगे? हम दुनिया भर में शेयर बाज़ार के बहेलिया-जाल का बिछौना बिछा कर भोले-भालों को अब नहीं लूटेंगे? बाक़ियों को क्रिकेट के मैदानों में बैठा कर ख़ुद उसका सट्टा खेलने क्रूज़ पर जाना बंद कर देंगे?
इसलिए प्रभु, हमारी झक्कूबाज़ी पर विश्वास रखना। इसके बाद भी अगर आपको रहम आ जाए तो अपने करुणावतार-भाव की ओस हम पर बरसाना। आमतौर पर होता यही है कि जो समर्थ और शक्तिवान होते हैं, उन्हें अच्छे-बुरे का फ़र्क़ करना ज़रा कम आता है। आप भी तो समरथ हैं प्रभु, इसलिए गंुसाई जी के कहे मुताबिक़, आप का भी क्या दोष? सो, पीस दीजिए सब धान ढाई पसेरी। आपको भी ऐसे अवसर कौन-से बार-बार मिलेंगे!
पृथ्वी पर तो नहीं है, लेकिन पालनहार, अगर आपकी दुनिया में थोड़ा-बहुत दीन-ईमान बाक़ी हो तो अपनी चयन-प्रणाली के कोल्हू को झाड़-पोंछ लीजिए। आप की आकाशगंगा में अगर यह पृथ्वी ऐसी बन गई है तो कौन मानेगा कि आप की मर्ज़ी के बग़ैर बन गई है? सात अरब सतहत्तर करोड़ मनुष्यों की क्या बिसात कि वे सर्वशक्तिमान के परोक्ष अनुमोदन के बिना अपनी धरती को ऐसा बना दें! यह तो ऐसा ही हुआ कि हम अमेरिका-चीन के बीच की मौजूदा नफ़रत के लिए डोनाल्ड ट्रंप और शी जिनपिंग को निर्दोष मान लें; भारत में लगने वाले फ़िरकापरस्त नारों के लिए नरेंद्र भाई मोदी की मासूमियत की बलैयां लें और कांग्रेस पार्टी की वर्तमान दशा के लिए राहुल गांधी की निश्च्छलता पर निछावर होने लगें।
सो, अपने कर्तव्य-निर्वाह के मूल दायित्व से तो आप भी नहीं बच सकते, प्रभु। इसलिए अंतिम बार यह सोच कर हमारी उलझन सुलझा दो पालनहार, कि ‘तुम्हरे बिन हमरा कौनो नाहीं’। उनका तो तुम्हारे बिना सचमुच कोई नहीं है, जो एकाएक हुई नोट-बंदी के बाद, उसी तरह एकाएक हुई तालाबंदी से हकबका कर अपने नन्हे बच्चों को कंधे पर लादे सैकड़ों मील दूर अपने घरों की तरफ़ पैदल ही चल पड़े हैं; जिनके पास पहले ही अगले दिन का इंतज़ाम नहीं होता था; जिनके लिए पहले ही अस्पतालों के दरवाज़े कभी नहीं खुलते थे; जिन पर पुलिस-प्रशासन वैसे भी बेबात डंडे बरसाता था; और, जिनकी जिंदगी में शासन-व्यवस्थओं के विभिन्न स्वरूप हमेशा से अर्थहीन हैं।
हमें बचाना, मत बचाना, मगर उन सब को बचा लेना, जिन्हें आप ही संभाले हुए थे, हैं और आप के अलावा कोई नहीं संभाल सकता। पृथ्वी के हर कोने में बैठे जीवन के तमाम आयामों के कब्ज़ाधारी तुर्रमखानों के भरोसे अगर पृथ्वी-वासियों का काम चल रहा होता तो आज की यह नौबत आती ही नहीं। ज़्यादातर का जीवन तो वैसे ही माथा-फोड़ी था। मगर अब तो किसी को यह भी नहीं मालूम कि दर्द का ताज़ा बोझा अपने मन पर लाद कर अभी कितनी दूर और चलना है।
अभी न मौक़ा है, न दस्तूर, इसलिए प्रभु, आप की भरत-भूमि पर बहुत-से प्रश्न ख़ामोश हैं। लेकिन एक बार इन प्रश्नों को पूछने का मौक़ा हमें ज़रूर देना। सवाल उठाने का दस्तूर पूरा किए बिना जो अलविदा हो जाएंगे, उन्हें कितने-कितने जन्म दोगे, रचयिता? इसलिए उन पर ध्यान दो, जिन पर सवाल उठ रहे हैं। और, उन पर करुणा बरसाओ, जिनके सवाल कोई सुनता नहीं। कोई सुने-न-सुने, उन्हें अभी बहुत-से सवाल और उठाने हैं। उन्हें बचा कर रखना।
सम्प्रति-लेखक पंकज शर्मा न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।