
भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी के ब्लॉग से उभरे राजनीतिक सवालों को कुंद करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो ट्वीट किया है, उसकी इबारत में अहंकार और अनदेखी के भाव स्पष्ट परिलक्षित हो रहे हैं। आडवाणी के ब्लॉग के निहितार्थ को दरकिनार करते हुए मोदी ने लिखा है कि ’आडवाणीजी, ने सच्चे अर्थो में भाजपा का अर्थ जाहिर किया है। सबसे गौर करने योग्य वह मंत्र है कि जिससे भाजपा चलती है, ’नेशन फर्स्ट, पार्टी नेक्स्ट, सेल्फ लास्ट’ है। भाजपा का कार्यकर्ता होने पर मुझे गर्व है और इस बात पर गर्व है कि लालकृष्ण आडवाणी जैसे महान व्यक्तित्व ने इसे मजबूती प्रदान की है।’ मोदी ने अपने ट्वीट में उन सब सवालों को खारिज कर दिया है, आडवाणी ने अपने ब्लॉग में जिन्हें प्रमुखता से एड्रेस किया है।
यदि हम आडवाणी द्वारा उठाए गए सवालों का सिलसिलेवार विश्लेषण करें तो साफ हो जाएगा कि भाजपा की मूल-अवधारणाओं और बुनियादी उद्देश्यों के धरातल पर मोदी कहां खड़े हैं? मोदी की चुनावी सभा के भाषण आडवाणी के इस विचार को पूरी तरह से खारिज कर रहे हैं कि भाजपा से राजनीतिक असहमति रखने वाले लोग राष्ट्र विरोधी अथवा राष्ट्रद्रोही नहीं हैं। वो हमारे दुश्मन नहीं, बल्कि प्रतिद्वंदी हैं। पिछले दिनों गुजरात में चुनाव अभियान के दौरान एक सभा में मोदी ने भाषण दिया था कि ’चुन-चुन बदला लेना मेरी फितरत है’। उनकी यह फितरत चुनाव के दरम्यान पूरे देश में उन नेताओं के यहां आयकर विभाग और ईडी के छापों में लगातार परिलक्षित हो रही है, जो अमित शाह की रणनीति में बाधक हैं। गुजरात में उनकी राजनीति में खलल डालने वाले पच्चीस साल के युवा नेता हार्दिक पटेल का चुनाव नहीं लड़ पाना उनकी असहिष्णुता का उदाहरण है।
ब्लॉग में राजनीतिक एवं चुनावी फंड में पारदर्शिता जुड़े मूल्यपरक मुद्दों को भाजपा को मिलने वाला कार्पोरेट जगत का 90 प्रतिशत चुनावी चंदा धुंधला कर देता है। क्या कभी इस बात का जवाब सामने आएगा कि भाजपा इतना महंगा चुनाव कैसे और किन साधनों से लड़ पा रही है? दिल्ली सहित समूचे भारत में बनने वाले भाजपा के पांच सितारा दफ्तरों की बुनियाद में जो अरबों रुपए लगे हैं, उसकी उगाही कहां से और कैसे हुई है? ज्यादातर चंदा सिर्फ भाजपा को ही क्यों मिल रहा है?
चुनाव में सुधार और भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति की प्राथमिकताओं से जुडे मुद्दे इसलिए खारिज हो जाते हैं कि भ्रष्टाचार से जुड़े किसी भी सवाल का जवाब देने को मोदी तैयार नही हैं। राष्ट्रवाद की नैतिक अवधारणाओं में घुलती कट्टरता और विद्रूपता के प्रति आगाह करते हुए आडवाणी ने कहा कि इसकी बुनियाद सत्य, निष्ठा और लोकतांत्रिक मूल्यों पर टिकी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में लोकतंत्र का सार अंतर्निहित है। लेकिन मोदी सवाल पूछने वालों को कठघरे में खड़ा करके लोकतंत्र की बुनियाद को ही खोखला करते नजर आ रहे हैं।
मोदी ने ब्लॉग के जिस टुकड़े पर तालियां बजाई हैं, उस क्रम में भी उनकी राजनीति सटीक नहीं बैठ रही है। ब्लॉग में आडवाणी की ’नेशन फर्स्ट, पार्टी नेक्स्ट, सेल्फ लास्ट’ की अवधारणा को मोदी ने सराहने का दिखावा किया है, जबकि मोदी की समूची राजनीति उससे उलटी चल रही है। उनकी राजनीति में ’सेल्फ लास्ट’ नहीं, बल्कि फर्स्ट है। मोदी की प्रशस्ति में समूची भाजपा और शासकीय मशीनरी के करतब चौंकाने वाले हैं। व्यक्तिगत इमेज को लेकर मोदी जितने सजग और सक्रिय हैं, वो देश के प्रधानमंत्रियों में अभूतपूर्व हैं। केन्द्र सरकार ने 2014 के बाद चार सालों में विभिन्न मीडिया माध्यमों में सरकारी विज्ञापनों पर 4343 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। मोदी की छवि-निर्णाण की कार्रवाई सिर्फ सरकार तक सीमित नही हैं। चुनाव के दरम्यान राष्ट्रीय स्तर पर नमो चैनल का प्रसारण विवादों के घेरे में है। इसके पहले देश के किसी भी प्रधानमंत्री के नाम पर टीवी चैनल की शुरुआत नहीं हुई है। मोदी पर बॉलीवुड में बॉयोपिक का निर्माण भी उनके स्तुतिगान को नए आयाम देने वाली सोची-समझी मार्केटिंग रणनीति है। मोदी के मुखौटे, मोदी-जैकेट, मोदी-कुरता की राजनीतिक-मार्केटिंग के मायने साफ हैं कि मोदी के लिए ’सेल्फ-लास्ट’ नहीं बल्कि ’सेल्फ-फर्स्ट’ है।
सम्प्रति- लेखक श्री उमेश त्रिवेदी भोपाल एनं इन्दौर से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक है। यह आलेख सुबह सवेरे के 06 अप्रैल के अंक में प्रकाशित हुआ है।वरिष्ठ पत्रकार श्री त्रिवेदी दैनिक नई दुनिया के समूह सम्पादक भी रह चुके है।
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